भूल की, पहचानने में भूल की!
सांप को डाली समझकर फूल की!
है हमें स्वीकार अपनी हार
बह गया है जब समय का ज्वार
चरमराकर टूटते पुल पर खड़े
देखते हैं हम थके, लाचार
सीपियां टूटी सिसकते कूल की!
और उड़ती धज्जियां मस्तूल की!
शेष हैं कुछ खुशबुओं के दंश
सांस में घुलता जहर का अंश
फूल-दुबके तक्षकों-से क्षण हुए
और यह मन परीक्षित का वंश
हो रहा है व्याधि अपने मूल की!
और आस्था की दरकती चूल की!
यह सहज विश्वास की लम्बी कथा
दे गई कुछ चोट, कुछ दारुण व्यथा
पूछती नम आंख, शापित सांझ से
ओस-भीगी सुगबुगाहट का पता
पर्त जिस पर जम गई है धूल की!
शेष है जिसमें चुभन कुछ शूल की!