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फूल-पत्ते / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है जिन्हें तोड़ना भले ही वे।
तोड़ लें आसमान के तारे।
ये फबीले इधर उधर फैले।
फूल ही हैं हमें बहुत प्यारे।1।

दिन अँधेरा भरा नहीं होता।
जगमगातीं नहीं सभी रातें।
है खुला दिल खुली हुई आँखें।
फिर कहें क्यों न हम खुली बातें।2।

बाँधने से हवा नहीं बँधती।
हो सकेंगे कभी न सच सपने।
दूसरे रंग लें जमा, हम तो।
मस्त रहते हैं रंग में अपने।3।

सूझ कर सूझता नहीं जिन को।
सूझ वाले कहीं न हों ऐसे।
कब कहाँ कौन पा सका पारस।
दे सके काम पास के पैसे।4।

क्यों टटोला करें अँधेरे में।
सींक सा क्यों हवा लगे डोलें।
क्यों बुनें जाल उलझनें डालें।
आँख अपनी न किसलिए खोलें।5।

जो हमें भेज दे रसातल को।
यों हवा में कभी नहीं मुड़ते।
चींटियों का लगा लगा के पर।
हम नहीं आसमान पर उड़ते।6।

सूझता है नहीं अँधेरे में।
जोत में ही सदा रहेंगे हम।
क्यों किसी आँख में करें उँगली।
बात देखी सुनी कहेंगे हम।7।

हों हमारे कलाम क्यों मीठे।
वे शहद से भरे न छत्ते हैं।
किस तरह हम उन्हें अमोल कहें।
पास मेरे तो फूल पत्ते हैं।8।