चार कंधे, बाँस की शैया, कफन लिपटा बदन से
हो गया रूखसत अजाना फूल इक कोई चमन से
डाल, पह जिसपर खिला था
पेड़ को उसने न छोड़ा
बस, सिहर कर रह गयी
पानी दृगों में लिये थोड़ा
वायु-झोंको के बहाने सनसनाती मौत आयी
एक अर्थी उठ गयी तो क्या, बड़े इतने भुवन से
जन्म से लेकर बुढ़ापे तक
सफर करता रहा था
और हर एक साँस पर
चुकता रहा, मरता रहा था
दूसरों का देखकर मरना जिसे जीना न आया
आँख रहते हो गया अंधा, रहा लिपटा सपन सें
भागती-सी भीड़ में, कुछ ने-
उचटती दृष्टि डाली
फुसफुसाहट एक धीमी
होंठ पर क्षण भर बसा ली
एक तिल भर फर्क भागमभाग में, जग की, न आया
क्या हुआ जो एक तारा, टूट कर, बिखरा गगन से
की नहीं परवाह जग ने
यह सदा जग से डरा था
हीन भावों से न जाने
क्यों हृदय इसका भरा था
ठोकरों से ठीकरे-सा मारना जग को, न आया
दुश्मनी थी जिंदगी से, दोस्ती कर ली मरण से