यह देने का अहंकार छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो :
‘मधुर, यह देखो
फूल। इसे तोड़ो;
घुमा-कर फिर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो :
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।’
फूल की स्मरण-प्रतिभा ही बचती है।
तुम नहीं। न तुम्हारा दान।
नयी दिल्ली, नवम्बर, 1968