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फैलाकर अपनी बाँह / प्रेमशंकर शुक्ल

हँसी ही फैलाऊँगा
फूल के गोत्र का हूँ

पानी के कुल का हूँ
उतरूँगा जड़ की ही तरफ़

हाँ, बड़ी झील !

पानी के कुल का हूँ
इसीलिए
जहाँ पानी देखता हूँ
फैलाकर अपनी बाँह
ढरक जाता हूँ
उधर ही !