Last modified on 11 जुलाई 2011, at 10:06

बँधे हुए घाटों पर / कुमार रवींद्र

बँधे हुए घाटों पर
      आ पाता नहीं, बंधु
                लहरों का शोर
 
सागर के तट पर
फैलाओ मत अपनी मीनारों को
बढ़ने से रोको
अपनी इन ऊँची लंबी दीवारों को
 
वरना फिर
साँसों से बोल नहीं पाएगी
                  सिंधु यह अछोर
 
रोको मत
नकली जलवायु से
बावली हवाओं को
होने दो खुलकर आकाश
बंदी घटनाओं को
 
सुन तो लो
बार-बार क्या कहती
               काँपती हिलोर
 
दूर-दूर तक नावें जाती हैं
धूप को बुलाने
आती हैं छूकर वे
कितने मौसम अनजाने
 
उनकी
आवाजों में होती है
               रोज़ नई भोर