Last modified on 20 अगस्त 2008, at 22:35

बंगाल का अकाल / महेन्द्र भटनागर


बंग भू पर हो रहा क्रन्दन-मरण व्याकुल स्वरों में !

घुल रहे हैं किस तरह विद्रोह रोके चिर-बुभुक्षित,
होश में हैं मौन मुरदे आज रोते क्यों मरण हित ?
वृन्तच्युत कोमल तड़पते भूख से शिशु-प्राण अंबुज,
पेट की ख़ातिर यहाँ सर्वस्व नारी बेचती निज,
और हैज़ा दीखता है आज कितने ही नगर में,
हैं बिछी अगणित कतारें हाय! लाशों की डगर में,
तड़पते अरमान इनके रोटियों की चाह में ही,
सो गये हैं जो सदा को एक व्याकुल आह में ही,
कौन देखे ? कौन रोये ? सड़ रहे मानव घरों में !

कह रहा जग आज साराµन्याय क्या, अन्याय है
आज का शासन कहाँ असहाय है, निरुपाय है ?’
ओ मरण के अस्थि-पंजर ! आज बल अपना दिखा दो,
घोर विप्लव ही मचा दो, आज सागर को हिला दो,
मौन है उच्छ्वास कह दो आज उनसे, ‘पुनः जागो !’
छीन लो अधिकार अपने, दीन बनकर कुछ न माँगो,
क्रूर अत्याचार जग के साम्य के पथ से हटा दो,
तोड़ युग के पूर्ण बंधन क्रांति की ज्वाला जला दो !
रूप ऐसा ओ प्रवर्तक ! आज हों लपटें करों में !

मंदिरों ने, मसजिदों ने क्या किसी को भी बचाया ?
सांत्वनामय धैर्य इनका क्या किसी के काम आया ?
धर्म के पोथे करोड़ों सड़ रहे हैं नालियों में,
आज चाँदी के न टुकड़े हैं प्रसादी थालियों में,
ईश पर विश्वास कैसा ? कौन ले अवतार आया ?
ढोंग मंदिर, ढोंग मसजिद भूल यह, ‘गुण गा न पाया।’
भाग्य का लेखा ? नहीं, वह था यही केवल बहाना
लूटना या चूसना था, या हमें उल्लू बनाना,
हाय ! मानव अधमरे ही, बह रहे हैं निर्झरों में !

हो रहा है नृत्य पथ पर, हो रहा रोदन कहीं पर,
बन रहे सुख-दुख भयंकर, मूक है जीवन यहीं पर
कह उठेगी मूर्ख दुनिया, ‘विश्व का ही यह नियम है,
भाग्य में इनके लिखा था, ईश की लीला विषम है।’
भूल है, जो कह रहे हैं, स्वार्थ का संसार उनका,
चल रहा है यह युगों से खोखला व्यापार उनका,
आज अंतिम दृश्य देखो नाट्य-घर बंगाल में आ,
जाग विप्लव, जाग नवयुग अस्थि के कंकाल में आ,
आज धड़कन, आज कंपन हो बुभुक्षित के उरों में !