ज़रूरी नहीं
पार्कों में
ही प्यार होता है
प्यार तो वह
नैसर्गिक दुनिया है
जब होता है तो
डंका पीटने की या
डमरू बजाने की
आवश्यकता नहीं होती
प्यार तो
अपने आप ही
दो दिलों को
दो अजनबियों को
करीब ला देता है
बिल्कुल उसी तरह
जैसे कुंभ के मेले में
दो अपरिचित मिल गए हों
या अचानक
दो आवंटियों को पता चले
कि वे दोनों पड़ोसी हैं
जिनके घर
आमने-सामने हों
या फिर
हमारे जैसे हों
जिनकी शुरुआत
अभी-अभी हुई हो
और ना बिछुड़ने की -
क़सम खाई हो !
क्या ठीक कहा है मैंने ?
जी !
बिल्कुल ठीक समझी
मैं !