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बंधु, चाहता काल / सुमित्रानंदन पंत

बंधु, चाहता काल
तोड़ दे हमें, छोड़ कंकाल!
यही दैव की चाल,
जगत स्वप्नों का स्वर्णिम जाल!
जब तक सुरा रसाल
काल भी मोहित : साक़ी, ढाल,
ढाल सुरा की ज्वाल,
मृत्यु भी पी, जी उठे निहाल!