इसी जुमना के किनारे एक दिन
मैं ने सुनी थी दु:ख की गाथा तुम्हारी
और सहसा कहा था बेबस : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।'
गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकार की।
इसी जमुना के किनारे आज
मैं ने फिर कहा है वह : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।'
और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी,
गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।
न जाने फिर
इसी जमुना के किनारे एक दिन
कर सकूँगा नहीं बातें प्यार की
सुननी न होगी दु:ख की गाथा-
एक दिन जब बनेगा उत्सर्ग स्वीकृति उच्चतर आदेश की!
बन्धु हैं नदियाँ : प्रकृति भी बन्धु है
और क्या जाने, कदाचित्
बन्धु
मानव भी!
दिल्ली-इलाहाबाद (मोटर से), 8 अक्टूबर, 1949