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बचते-बचाते / दिनेश कुमार शुक्ल

भीतर भरी ग्लानि से छुपकर
आते हैं वे समर्थ के द्वार
त्योहार की जोहार करने,
अपनी बीमारियों से नज़रें चुराकर
पर्दा उठाकर भविष्य में झॉंकते हैं
और घड़ी भर आगे भी जाती नहीं नज़र,
अपनी निराशा को झुठलाते हुए
बचकर निकल आते हैं वे
सभ्यता-समीक्षा के कुहराम में
और अपने दुखों को रख आते हैं ऊँचे ताक पर,

अपनी पराजय से छुपकर
बाहुबली की गली से निकलते हैं
वे आँखें बचाकर,
ऐसा भी समय आता है
जब उन्हें
सिर्फ़ अपना चेहरा ही नहीं
अपना सब कुछ पूरा-का-पूरा छुपाना पड़ता है ख़ुद ही से,
छिपते हुए दिन की रोशनी से
रात के अन्धकार से छिपते हुए
चलते हैं वे किनारे-किनारे तट पर
पानी में डूबे अपने ही प्रतिबिम्ब से छिपते-छिपाते
वे डरते हैं गहरे पानी पैठने से,
कर्ज़ वसूलने वालों
और मदद मॉंगने वालों
और उम्मीदें रखने वालों से
बचते बचाते वे भागते हैं कभी
सातवीं शताब्दी में तो कभी पच्चीसवीं शताब्दी में,
अपने भविष्य से छिपते
छिपते हुए अपने वर्तमान से
वे भगते हैं अतीत की कन्दरा में
और अतीत उन्हें दबोच लेता है
और उठाकर वापस फेंकता है लहूलुहान वर्तमान में

वे ऊँघते पहरेदारों की नींद को लॉंघकर
घुस जाते हैं सत्ता की गोपनीयता में
और सरकारी अभिलेखों में जाकर छुप जाते हैं,
कुछ के पास होते हैं छिपने के लिए अपने ही लिखे कोसों तक
फैले हुए लेख
कुछ ले लेते हैं भीड़ की आड़
और कुछ दर्पण देखते-देखते
अपनी छवि में ही हो जाते हैं लीन,
कई तो ऐसे हैं
जिन्हें छिपने छिपाने के लिए
छोटा पड़ जाता है संसार का सबसे ऊँचा पहाड़
और सबसे गहरा समुद्र उथला पड़ जाता है
तमाम पृथ्वी में अट नहीं पाते वे
सो जा छुपते हैं
वे अपनी ही काली छाया के
अनन्त अन्धकार में

इतने सारे छुपने वालों को
छुपते देखती है एक मुस्कान
जिसे कोई नहीं देख पाता
जो सभी से छुपी रह जाती है
देख सको तो देखो
वह मुस्कान विद्रूप की - अकेली, अप्रतिहत, आश्वस्त,
तुम्हारे ही भीतर छुपी हुई !