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बचपन-यौवन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

धवल धाम अभिराम गगनचुम्बी ध्वज शोभित,
शुभ्र शिखर नव रत्न खचित स्वर्णिम श्रीमण्डिित,
यत्र-तत्र-सर्वत्र-अगरू-घन-धूम समुन्नत
मधुगन्धित परिवेश प्रदूशण रहित सुसंयत।

राजभवन सद्धर्म-कर्म पूरित आनन्दित,
सहज सत्त्वगुण रजत प्रखर तृण-तृण पर नर्तित;
पुलकित दिव्य विराट शान्ति अक्षर-सी मुद्रित,
अधर-अधर प्रतिबिम्ब सरस पाट श्री सुशमित।

गंग-तरंग-उमंग-अंग-वीणा-मृदु झंकृत,
धार-धार-उपहार-हार-जीवन-धनसंचित,
कल-कल ध्वनित अकूत विमल जल अविरल धावित,
सलिल-ब्रह्म आधार-जगत-वन्दित-अभिनन्दित।

शासन का शृंगार सहज शोभित अनुशासन,
शिश्ट-सुशील-विनीत-सरल मन्दिर सेवक जन।
प्रवहमान सद्ज्ञान शक्ति शुभ संचयकारी,
बना हुआ शिवधाम धर्म सम्बल संचारी।

उपवन मोहक रम्य प्रकृति सुशमाएँ अक्षर,
झूल रहीं अरुणाभ लताएँ डाल-डाल पर,
प्रभा प्रभाती की कलियों के अरुण अधर पर,
नीरव नर्तित मधुर-मनोहर मदिर-मदिर वर।

यौवन के मधुमत मधुकरो द्वारा चुम्बित,
लाजवती-सी कलिाओं के अधर संकुचित।
यौवन की रस धाराओं में खोये-खोये,
नव अभिनव उल्लास रास मृदु हास सँजोये;

गीत गुनगुनाते अलियों के दल मन मोहक,
मधुर-मधुर मालिनी शिखरिणी नव रस दोहक।

में सर्जन में ध्वंस सजाये,
संसृति की मोहनी अमृत विष नित्य पिलाये।
यही मोहनी यदि विवेक का वरण कर सके,
तो खुद में गुरुता के अभिनव रत्न भर के।

देख-देख यह दृश्य शोक जगता अशोक में
अरे! फँसा है मनुज कौन से अन्धलोक में,
भटका जीवन कहाँ पतन के तूफानों में
आग लगाता सतत प्रगति के सोपानों में

अमृत-कुम्भ पाया, परन्तु विषगागर निकली,
पावन जीवनधार अश्रु का सागर निकली,
मन की मधुर तरंग रंग का अर्चन करती,
निरालमब स्वर्गिक भोगों चिन्तन करती।

राजभवन उद्यान सहेजे उन्नत यौवन,
मधुगन्धित सानन्द मलयगिरि का प्रतिदर्शन,
प्राणवायु-सी शान्ति प्रवाहित रहती हरपल,
रंचक घिरते नहीं कभी उलझन के बादल।

नंदन वन को मात कर रहं काशी-उपवन।
मन्द बयार बहार उमगों का नव नतन॥
नन्दन वन है मात्र सुरों का ही चिर नूतन।
पूजनीय है जब कि सुरों का भी काशी वन॥

आज राजमहलों की शोभा अतुलनीय है,
जगी मांगलिकता मनोज्ञ श्री वन्दनीय है।
द्वार-द्वार पर मुखर हुए नूतन उजियारे,
धरती पर आयी रजनी शृंगार सँवारे।

सतरंगी परिधान सहज भूषित अंगों पर,
या कि नवोढ़ा ने धारे नूतन भूषण वर।
या सुकुमारी शरद रूप साकार धर उठी,
स्चराचर में अभिनव रस संचार कर उठी।

या वसन्त सेना लेकर उर्वशी पधारी,
घुमा रही मादकता की हर ओर कटारी,
धारे धार हार किरणों का करती नर्तन,
बुद्बुद नूपुर मधुर, मधुर करते कल कूजन।

सिन्धुराज के घर जन्मी ज्यों लक्ष्मी माता,
या विदेह के गेह सिया जग भाग्य विधाता,
या आये हों प्राण देह में जीवन बनकर,
या बरसे हों जलद तप्त मरुथल के ऊपर।

त्यों ही अम्बा सेनबिन्दु के कुल में आयीं,
जाग उठीं खुशियाँ अपार महलों में छायीं।
अम्बा जगदम्बा अवलम्बा काशी कुल की।
दीपशिखा परमोज्ज्वल ज्यों प्रदीप संकुल की।

अम्बालिका अम्बिका लक्ष्मी ब्रह्माणी-सी,
साथ सुशोभित अम्बा पावन शर्वाणी-सी।
अति प्रसन्न श्री सेनबिन्दु थे सुतात्रयी से,
ज्यों गद्गद वेदज्ञ विप्र हो वेदत्रयी से।

गूँज उठी लोरी किलकारी राजभवन में,
सजने लगे साज नूतन नृप के आँगन में,
कन्या रत्नांे को पाकर नृप झूम उठे थे,
एक दूसरे को धरती नभ चूम उठे थे।

मंगल कलश धरे सिर प्राची कुंकुम चन्दन-
लिये हाथ में दुर्वांकर करती अभिनन्दन।
बार-बार पढ़ रही स्वस्ति घन-विप्र-मण्डली,
हर्षित वसुधा देह हो उठी सहज सन्दली।

पूरित हैं हर्षतिरेक से राजभवन पथ;
किन्तु कौन जानता भला इस सुख का इति-अथ।
दान-मान-सम्मान, भोज के बहु आयोजन,
करने लगे चतुर्दिक हिलमिल जन-संयोजन ं

चला बहुत दिन सुता जन्म-उत्सव सुखदायी,
शैशव ने काशी में फिर गुरु गरिमा पायी।
फूलों ने पराग बिखराया डगर-डगर पर,
मंगल गाती रहीं कोयलें मधुर-मध्ुार स्वर।

कलियों के अधरों पर नूतन रंगत आयी,
डाल-डाल पर कुसुम-विभा प्रतिभा-सी छायी।
जग उठा माधुर्य मनोहर गुणगानोें में,
प्रगति कर उठी गति जीवन के सोपानों में।

फैल गया सानन्द रास है धरा-गगन में,
झूम उठी अप्सरा खुशी की अन्तर्मन में।
भूली सुध-बुध काशी निज आनन्द मगन हो,
उर-मन्दिर में माया जैसे विगत भजन हो।

बिखरायी मुस्कान उषा ने डाल-डाल पर,
नये-नये श्रृंगाार सजाते किरणों के कर।
लिये कुंकुमी थाल द्वार पर सन्ध्यारानी,
जगा रही उल्लास सुधा सिंचित मृदु वाणी।

नर्तित निशा लुटाती हीरक राशि प्रफुल्लित
और मुदित राकापति करता दुग्ध निर्झरित।
मंगल चौकें चारु चाँदनी चित्रित करती,
सचराचर में नव चेतना सहज संचरती।

दुग्ध स्नात वन-उपवन-जल-थल मधुरिम लगते,
जैसे नव यौवन में नूतन भाव उमगते,
शान्ति साधना जैसी बिखरी धुली चाँदनी,
सहज सुधारससिक्त बनारस बनी मधुबनी।

खिली रातरानी, बेला, चाँदनी, मनोहर
हरसिंगार के फूल उतुल सद्गन्ध सहोदर
मना रहे सानन्द जन्मदिन शुभ अम्बा का,
मानो था सान्निध्य मिल गया जगम्बा का।

खेलती नित्य वह बाला अभिनव फूलों में,
हँसती झूलती सदा रेशम के झूलों में,
नृप की गोद में, कभी खेलती माता से,
उसके विनोद सबको लगते सुखदाता से।

दौड़ती दुबक माँ के आँचल में छिप जाती,
मानो बदली के बीच चन्द्रिका मुस्काती,
नटखट बचपन की किलकारी से घर-आँगन,
था गूँज उठा काशी नरेश का अन्तर्मन।

तितलियाँ उड़ाती कभी पकड़ती उपवन में
ज्यों आता जाता क्षणिक त्याग है जीवन में,
खिलती कलियों को देख विहँसती हँसती थी
परझड़ते फूलों से हो व्यथित दहलती थी।

कहती हे सखी! बहारों में भी खार छिपे,
उजियालों के पीछे कितने अँघियार छिपे।
फूलों में विभा उभरती फिर मिट जाती है,
देखो गुलाब की बिखरी पाती-पाती है।

जिन पर तितली भौरे पल भर मंडराते हें
उन फूलों के सब रूप रंग लुट जाते हैं।
कैसी विडम्बना है कैसा परिवर्तन है?
क्षण-क्षण बदलाव सहन करता यह जीवन है।

माधवी बहारें आतीं बहुत लुभाती हैं।
फिर क्षण में जाने किधर चली वे जाती हैं?
तन-मन वन उपवन क्या न यहाँ पर वंचित है,
परिवर्तन ' वाहन से सब कुछ संघर्षित है।

यह प्रकृति पढ़ाती रहती है सबको हरपल,
पर हमी नहीं पढ़कर कर पाते पल उज्ज्वल।
जाने किसका जादू है? किसका टोना है?
फूलों की डाली बन जाती विष दोना है।

बचपन से ही पावन था अम्बा का चिन्तन,
सुख-दुख दोनों का करती थी सम अभिनन्दन।
वह चन्द्रकला-सी दिन-दिन बढ़ती जाती थी,
सुख सकल राज वैभव का अनुपम पाती थी।

लोरियाँ सुनाती माता मंजुल कविताएँ,
वीरों की और महापुरुषों की गाथाएँ।
आख्यान तेज-तप-त्याग और बलिदानों के,
हौसले बढ़ाते अम्बा के अरमानों के।

सुनती पुराण इतिहास कथा अवतारों की,
श्रंृखला सबल होती उन्नत संस्कारों की।
वह सुरबाला-सी अस्त्र-शस्त्र धारण करती,
अद्भुत प्रतिभा का दिन-दिन विस्तारण करती।

जो आज बना कुल गौरव हर्ष अमितदाता,
है वही एक दिन दुख के ज्वार जगा जाता।
उल्लास उमंग तरंगित है जिसके भीतर,
प्रतिभा का उन्नत सर लहराता लहर-लहर।

जो सब के उर आनन्द जगाने वाली है,
जिसकी हर करनी-कथनी मधुर निराली है।
'अम्बा' जो आज बन गयी है सुख का कारण,
था कौन जानता देगी दुःख असाधारण।

जिसके कारण हर मुखमण्डल पर है लाली,
उसके भविष्य में छिपी सघन बदली काली।
प्रारब्ध लेख किसका पढ़ पाया कौन यहाँ?
जो रहता हर पल, हर क्षण, हर दिन मौन यहाँ।

जब तक जीवन का पट वलक्ष है धरती पर,
जब तक न अंक में पंक लिपटता है आकर,
तब तक दृष्टियाँ समादर को उत्सुक रहतीं-
हैं, धन्य-धन्य जय हो-जय हो हरपल कहतींे,

पर जिस क्षण नियति भंग करवाती रंग एक,
फिर कहाँ चूकते व्यंग्य-बाण लगते अनेक,
जो गूँज रही घर-आँगन में है किलकारी,
है छिपा इसी में अपमानों का विष भारी।

यह सुधाधार टकरायेगी तलवारों से,
सिंचित कर देगी धरती रक्तिम धाराों से।
है छिपा हुआ सब कुछ भविष्य की पर्तों में,
आकाश कुसुम कामना बिलखती गर्ताें में।

कामना-कुसुम किसके न हृदय में मुस्काते?
पर वें कितने हैं जो यथार्थ में भी पातेे?
यों ही अम्बा के जीवन की लीला विचित्र,
है अभी और होगा आगे कुछ और चित्र।

संस्कार महोत्सव में अनगिन दिन गये बीत,
लोरी किलकारी में बीता शैशव पुनीत,
आया कैशोर्य चपल हलचल-सा प्रथम बार
जैसे पावस घन बीच दमक-दामिनी हार।

घुंघराली लटें लटकती अरुण कपोलों पर।
या घेर रहे दामिनी को घन के श्यामल कर॥
हैं नहीं दोलनोत्सुक लगते स्वर्णिम कुण्डल।
पूनमी चन्द्र में जाग उठी अद्भुत हलचल॥

कुण्डल मणि की रश्मियाँ प्रकम्पित केशों में,
हैं उलझ गये य बादल सघन दिनेशों में।
छवि-छटा कपोलों की लगती युग मंगल-सी,
या हुई पाटलों की सुषमा कुछ चंचल-सी।

मृगशावक से चंचल दृग लगते नीलकमल,
या नीलम की घाटी में जगमग हलचल।
या अस्थिर खंजन से संयम के शत्रु प्रबल,
या छिपे अंक में पूनम के घनश्याम युगल।

अधराधर या कि प्रभाती का अभिनव प्रवास,
या कुरुक्षेत्र में सरस्वती का नव विकास।
या शान्त सरोवर में हर्षित उत्फुल्ल कमल
या माया में जग उठा र्इ्रश अनुराग नवल।

या दहक उठे किंशुकवन पूनम के आँगन,
या स्फटिक शिला पर कुसुमायुध है मनभावन।
या वासन्ती उपवन में गुड़हल हिले-मिले
हैं क्षीरधि में अरुणाम्बुज मानो अभी खिले।

है अंग-अंग में दीप्ति नवल निर्झरित त्वरित,
जैसे प्रयाग में सुरापगा है समुल्लसित,
ज्यों मन्द-मन्द-सी दीपशिखा है परमोज्ज्वल
ज्यों जल-पट ओढ़े हुए ज्योति झलमल-झलमल।

थे अंग-अंग मणिकोश अतुल छविमान हुए,
या रत्नसार संचित कर ज्योतिर्मान हुए।
थी अंग-अंग में कनक कान्ति आकर उभरी,
या स्वर्गिक सुषमा सिमट आज भू पर उतरी।

सादगी सकल वस्त्राभूषण ज्यों आँक रही,
वस्त्रों की गरिमा तोड़ दीप्ति नव झाँक रही,
चुपके-चुपके यौवन आ पहुँचा तन-मन में,
स्वर्णिम रश्मियाँ जगी जाने कब जीवन में?

यह कौन स्वप्न का जाल सुनहरा बुनता है,
अज्ञात व्यथा की कथा अनकही गुनता है।
खिल उठे कमल सोनल अम्बा के मानस में।
अभिनव जीवन की ज्योति स्नात अभिनव रस में॥

सज उठी त्रिवेणी तन-मन-यौवन की पावन,
बज उठी मधुर रागिनी अतल में मन-भावन।
श्रंृगार पर्व सज उठे सुगन्धित पाटल से
जग उठे चन्द्रिका के सोपान समुज्ज्वल-से।

जागीं अन्तस में मधुर कामनाएँ सँवरीं,
ज्यों प्रथम बार विधु की किरणें नभमें उतरी।
पौ फूट रही धीरे-धीरे उदयाचल पर,
या जगा रहे जलजों को प्रातः रश्मिल कर।

अमराई में कोयल आकर हो बोल उठी
या वासन्ती उपवन में पुरवा डोल उठी
या मेघों के झुरमुट में हो रश्मिल हलचल
या फूलों में मधुगन्धरास की प्रथम पहल।

जिस ओर दृष्टि रश्मियाँ बिखरती उपवन में,
संचित हो जाता है विधुरस जड़-चेतन में।
अधराधर कलियों के भी ठहर नहीं पाते,
मृदुहास पर्व से अनजाने ही सज जाते।

यौवन का नूतन मधुर दिवाकर जाग उठा,
मणि नागलोक की, तारे नभ के माँग उठा।
रेशमी रश्मियाँ आकर्षण की डोल उठीं,
मन-हिरना के संयम को रह-रह तोल उठीं।

मुख-कन्ज-मन्जु अम्बा का सुन्दर निर्विकार
सौन्दर्य-सिनधु के मन्थन का नवनीत-सार।
यौवन की धारा में सोने की नौकाएँ
खे रहा न जाने कौन मौन गुन-गुन गाये?

वह सुमन लता-सी यौवन की कुन्दन-कुन्दन,
थी अंग-अंग सद्गन्ध मन्द चन्दन-चन्दन।
कंचन-कामिनी-कीर्त्ति का अद्भुत संयोजन,
लज्जित होता वाणी से नव कोकिल-कूजन।

दृग-झीलों में तैरतीं भाव मछलियों प्रचुर,
हो रही तरंगित विद्युत धारा अन्तःपुर,
है छलक उठी मादकता दृग की प्याली से,
सज उठी कपोलद्वयी कंकुमी लाली से।

तृण-तृण आनपन्दित पद-पंकज का कर चुम्बन,
हैं आत्ममुग्ध हो रहे चराचर वन-उपवन।
फूटते हँसी के निर्झर छवि लगती उदार,
आहत करता मन भंृग प्रखर-चितवन-प्रहार।

प्राणों में वंशी बजती सुधा बरसाती है,
आँसू की धारा चीर जिन्दगी हँसती है।
यह यौवन ही सद्गति-दुर्गति का दाता है,
यह सकल सृष्टि का अद्भुत भाग्य विधाता है।

यह चाहे तो संसार स्वर्ग-सा बन जाये,
यह चाहे तो मनुजत्व धरापर सुख पाये।
यह चाहे तो धरती-आकाश प्रफुल्लित हों,
यह चाहे तो सुख शान्ति सिन्धु सवंर्द्धित हो।

पर यह यौवन कर्तव्य विमुख जब होता है,
जब घोर असंयम के पलने में सोता है,
निःसार ध्वंसधर्मा स्वपनों को ढोता है,
तो फिर संकट के सोपानों में रोता है।

यौवन यौवन है चाहे नर हो या नारी,
वह नहीं समझता ज्ञान भक्ति परहितकारी।
वह कहाँ ज्योति के पर्वाें का आदर करता
बस अन्धकार को खींच उम्र का घट भरता।

जो यौवन सत् चित को संचित कर पाता है।
वह जीवन भर मंगल आनन्द मनाता है।
दुख आता नहीं निकट सुख ही लहराता है।
वह सत्यं, शिवं, सुन्दरं, का धन पाता है।

हैं पाप-ताप-संताप न आते पास कभी,
खण्डित न हुआ करता मन का मधुमास कभी।
अम्बा का यौवन भी अपार अति सुन्दर था।
रत्नों से भरा हुआ उन्मत्त समुन्दर था।

अनछुआ कुसुम अक्षत-अक्षत सब रुप-रंग,
वक्षोज नहीं, उन्नत है शुचि ममता अभंग।
था कौन जानता उसमें खार अपार भरे,
जे क्षणिक स्वप्न से लगते थे सब हरे-हरे।

यह यौवन जो दामिनी-दमक-सा आता है,
मन प्राण सभी में नूतन ज्वार जगाता है।
यह इन्ध्रधनुष-सा कुछ पल ही मुस्काता है,
शारादी-घटा-सा जाने कब उड़ जाता है।

नृप लगे सोचने ब्याह योग्य पुत्री मेरी-
हो गयी, करुँ अब क्षणभर की भी क्यों देरी
भिजवाने लगे निमन्त्रण काशिराज सत्वर,
हर ओर गूँजने लगे मध्ुार मंगलमय स्वर।

हो उठे महल सब काशी के उन्नत श्री-वर,
आयोजन हुआ स्वयं वरने को इच्छित वर,
मंगल गा उठी मधुर सुरसरि की लहर-लहर,
था शाश्वत जीवनराग स्वयं हो उठा मुखर।