मेरे सपनों में बसा है
अपने बचपन का गाँव
जहाँ सूरज उठता था
कुँए की मुंडेर से
और सो जाता था
मुँह छिपाकर अरहर के खेतों में
जहाँ दुपहर की छाँह
अलसाई सी
दुबकी रहती थी
नीम तले
जहाँ बारिश में
भींगते थे
गाते थे गीत
मेढकों को मारकर
माँफी माँगते थे बादलों से
‘कान दर्द करे धोबी का
हमारा ना करे ‘
जहाँ बैलों के कंधे पर बैठे
कौओं को उड़ाते थे
ढेले मार-मारकर
कुए में झाँककर
पुकारते थे कोई नाम
और सुनते हे प्रतिध्वनि
कान लगाकर
जहाँ आम के टिकोरे
कुछ कलछौर फालसे
पत्तियों में छिपे करौंदे
हमारी राल टपकाते थे
चोरी को उकसाते थे