Last modified on 14 सितम्बर 2009, at 20:01

बचपन का घर / तरुण भटनागर

जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था,
तब खयाल नहीं आया,
कि यह यात्रा एक आैर घर के लिए है,
जो निलर्ज्जता के साथ छीन लेगा,
मुझसे मेरे बचपन का घर।
यंू दे जाएगा एक टीस,
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं,
क्योंिक दुनियादारी होते हुए,
रोज़ छूट रहे हैं,
लाखों लोगों के,
लाखों बचपन के घर।
कितना अजीब है,
जो हम खो देते हैं उमर् की ढलान पर,
वह फिर कभी नहीं लौटता,
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता,
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।
माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, जि़द, दुलार, सुख ़ ़ ़
सब चले जाते हैं,
किसी ऐसे देश में,
जहां नहीं जाया जा सकता है,
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी,
वहां कोई नहीं पहंुच सकता।
ना तो चीज़ों को काटा-छांटा जा सकता है
आैर ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है,
पूरा दम लगाकर भी,
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।
हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकट्ठा होते हैं,
बचपन के घर में,
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।