बचपन के दिन
और गाँव के
जाते नहीं भुलाए ।
सरना काका की दुकान के
पेड़े, सेंव, जलेबी गुड़ की
बाड़ी वाले पीरू चाचा
बेर बीन देती वह बड़की
वह नरेन्द्र, वह भागचन्द
चंचल सरोज और संध्य़ा निर्मल
गुल्ली- डण्डा, गड़ा- गेन्द की
अब तो मीठी यादें केवल
कांक्रीटों के जंगल के यह
केवल बहुत सताए ।
छकड़े में या पैदल-पैदल
रेवा-तट बड़केश्वर जाना
माँ की उँगली पकड़ नहाना
रेती में कुदड़ाना, खाना
नीम तले खटरा मोटर का
युगों-युगों-सा रस्ता तकना
और निराशा की झाड़ी में
मीठे बेर यक-ब-यक पकना
ख़ुशियों का यह
चरम लौटकर
फिर आए न आए ।