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बचपन कैसे मिल पायेगा / कमलेश द्विवेदी

जिसको अम्मा कि गोदी में नींद हमेशा ही आती थी।
जिसको बाबू के कंधे पर चढ़कर दुनिया दिख जाती थी।

जो अ आ इ ई लिखता था लकड़ी की काली पाटी में।
जो अक्सर खेला करता था बागों में, सोंधी माटी में।

जो खुश होता था बारिश की बूँदों में छत पर जा-जाकर।
जो खुश होता था काग़ज़ की नावें पानी पर तैराकर।

जो पा करके प्यार बड़ों का फूलों जैसा खिल जाता था।
जिसको बस एक चवन्नी में जाने क्या-क्या मिल जाता था।

मैं सोच रहा हूँ आज वही बचपन कैसे मिल पायेगा।
छीना था जिसे जवानी ने अब कौन उसे लौटायेगा।