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बची-खुची आवाज़ / लीलाधर मंडलोई

सँवलाया स्वर तुम्हारा
बगरता है घरों-घर
हवा पांखियों पर विचरती
तुम्हारी मायावी टेर
गमकने लगती है ओर-छोर

धन्यवाद रेडियो
कि गाती हैं सुघड़ गृहस्थिन
स्मरण करती
टेर के संग-साथ टोलियों में
‘दरस की तो बेरा भई रे
बेरा भई रे पट खोलो सजीले भैरोनाथ हो’

कितनी है लंबी तुम्हारी टेर
कि तुम्हें सुनता
सूरज तक ईंगुर सा बगर उठता है
अक्कास में

जहां कहीं पहुँचता है स्वर
घर-मोहल्लों
खेत-खलिहानों
कि दूर-दराज भूखंडों में
सुनते हुए सबके सब
लौटते हैं बँधे-खिंचे
संजोये तुम्हारी स्वर कामनाएँ

वे लौटते हैं ठीक वहाँ
जहाँ तुलसी पर दिया बारती माँ
गा रही होती है तुम्हारी ही मंगलकामना
‘सबपे किरपा राखियो हो माँ’

अधुनातन संगीत के लहालोट में
कितनी अद्भुत है तुम्हारी
किवारों पर झंझर दस्तक
कि ठुमकते हैं बच्चों के पाँव गुनगुनाते
‘नच रए हैं पाँव ढुलकिया पे’

खूब मंगल गाओ रविकांता
धन्यवाद!
कि बची-खुची आवाज में
दबा-छुपा इतिहास है आतताइयों का

जिनकी क्रूरताएँ अपदस्थ करतीं
हर दिशा से एकमत
उठती हैं स्वर लहरियाँ
‘उड़-उड़ जा रे सुआला गंगाराम
खबरिया दइयो गोरीधन की’