बाबू, चलो ना
बको मत, चलो ना
कहता है एक बच्चा
अपने पचास वर्षीय अधेड़ पिता की अंगुलियों को थामें
बच्चा बार-बार पिता को पुकार रहा था
बार-बार उसके सिर को उपर उठाने की कोशिश कर रहा था
लेकिन सिर था कि सिरा ही गायब था
रंग में भंग ही भंग था !
यह होली के ठीक पहले की शाम थी
लंका के रविदास गेट पर चहल-पहल थी
दुकानों में बाज़ार की आवाज़ाही थी
दुनिया जब गर्मे सफ़र पर जा रही थी
लाउडस्पीकरों की भीड़ से ईश्वर थोड़ा दूर खिसक गया था
भीड़ में वही पर अकेले
बच्चा अपने ईश्वर को पुकार रहा था
यह एक अजीब हालत थी
बच्चा भीड़ को पुकार रहा था
भीड़ ईश्वर को
और पुकार की हर कोशिश में ईश्वर
अपनी नज़र की कोर से
थोड़ा मुस्कुरा देता था ।
रचनाकाल : 12.02.2008