सोच-सोच बचपन की बातें,
दादा को लग रहा खराब।
कहते हैं वह, जब छोटे थे,
बाल पुस्तकें पढ़ते थे।
पहले मिलें उन्हें ही पढ़ने,
छीना झपटी करते थे।
पता नहीं क्या हुआ आजकल,
बच्चे पढ़ते नहीं किताब।
वे अपने पापा से कहकर,
नई पुस्तकें मंगवाते।
चंदामामा, चम्पक, नंदन,
एक बार में पढ़ जाते।
पुस्तक पढ़कर मित्रगणों पर,
ख़ूब गांठते रोज़ रुआब।
कभी-कभी नई पुस्तक आती,
पढ़ने ले लेती दीदी।
जब तक पूरी न पढ़ डाले,
छूने हमें नहीं देती।
फड़-फड़ करते हम पंछी से,
पुस्तक पाने को बेताब।
अब तो केवल पाठ्य पुस्तकें,
ही बच्चे पढ़ पढ पाते हैं।
दुनियाँ दारी नहीं जानते,
ज्ञान किताबी पाते हैं।
पढ़ें बालमन कैसे, कितना,
इनमें होता नहीं हिसाब।