इस काठघर के कगूरे पर
सुनती हूँ
बज़र का बजना
लगता है
इस तिलिस्मी शहर की
आबनूसी दीवारों में से
यंत्र-चालित चींटियों की
कतार जैसे सभी लोग
जिन्हें निगल लिया था सुबह
इन दीवारों ने
आ खड़े हैं एक
चौराहे पर
और आसमान की ओर मुँह उठाए
उबासियाँ ले रहे हैं एक साथ
मानो यह दफ्तरी सभ्यता के युग की
सामुहिक मोक्ष-साधना हो
हाथ जोड़ना भूलकर
मुँह की ओर
ताकती हूँ
मैं
1970