बटाऊ, चाल्यां मजलां मिलसी।
मन रा लाडू खा’ र कदेई
सुण्यो न कोई धाप्यो ?
उग्यो हथेळी रूंख कणाई
देख्यो नही फळाप्यो ?
सूरज बो ही जको रात री
छाती फाड़ निकळसी।
बटाऊ ! चाल्यां मजलां मिलसी।
गैलै रो तो काम अतो ही
पग नै सीध बतावै,
बो मजलां नै घर बैठां ही
किण नै ल्या’र मिलावै,
इसी हुयां तो पग आळां रा
डांव पांगळा धरसी,
बटाऊ, चाल्यां मजलां मिलसी।
तपो तावड़ लूंआं बाजो
चावै चढ़ो थकेलो
पण बगतो जा सुण धर कूंचां
धर मजलां रो हेलो,
जद सपनै री कळी थारली
फूल साच रो बणसी।
बटाऊ, चाल्यां मजला मिलसी।