{{KKRachna | रचनाकार=
सुबह उठते ही,
आज भी कानों में,
गूंजती है मानो ,
वही ममतामयी आवाज,
उठ जा बेटा सुबह हो गई ।
आलस्य के वशीभूत,
अनमने मन से,
झुंझला भी उठता था मैं,
कभी - कभार,
मगर नहीं भूलती थी,
रोज सुबह,
मुझे नींद से जगाना,
बड़ी अम्मा ।
बचपन में दादी को,
पहली बार,
कब पुकारा होगा,
बड़ी अम्मा ,
मुझे याद नहीं,
मगर अक्सर उनका,
चिंतित रहना मेरे लिए,
मैं महसूस करता,
रहा हर बार ।
वक्त के फेर में,
धुंधला चुकी,
उन आंखों में,
वात्सल्य की रौशनी,
कभी कम नहीं हुई ।
एक हल्की सी आहट,
जगा देती थी उन्हें,
जब कभी मैं देर से,
घर लौटता था रात को l
मकान के घर होने का,
अहसास रहता था हमेशा,
मगर आज घर महज,
मकान ही रह गया है ।
उनकें उस खाली पडे.,
कमरे का सन्नाटा,
हर बार गहरा देता है,
अन्दर के जख्मों को ।
जानता हूं कि,
जीवन की ही तरह,
एक सच है मौत भी,
मगर न जाने क्यों,
दिल आज भी,
मानना ही नहीं चाहता,
कि अब नहीं रही है,
बड़ी अम्मा।