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बड़े-बड़े पैलेसों में / अमरजीत कौंके

बड़े-बड़े पैलेसों में
दिन कभी रात की शादियों में
यार दोस्तों के संग
मिल कर बैठे
खुशी के घूँट भरते
अचानक भीतर से
कुछ बुझ सा जाता

महफ़िल में बैठा मन
छोटे-छोटे सेवा करते
सफेद जैकेटें पहने
बच्चों के साथ
उठ कर चल पड़ता

छोटे-छोटे बच्चे यह
नहीं मालूम
किस मजबूरी के मारे
बचपन की आयू में
पढ़ने की उम्र में
उठा कर चलते प्लेटें
बाँटते शराब
सुनते गालियाँ
भद्दे शब्द

कहीं खुश होकर कोई
सेवा उनकी से
दे देता कुछ रूपये
उनकी मुट्ठी में
तो चमक उठती
आँखें उनकी
लगता जैसे
लाटरी निकल आई
कोई भारी

बाँटते शराब
यंत्रवत चलते
 
एक टेबल से दूसरे टेबल तक
आँखों में टिप की लालसा लिए

मन चलने लगता
साथ-साथ उनके
बुझ जाती खुशी मन की

घर लौटता
तो अजीब सी उदासी
साथ-साथ चलती।