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बड़े होते बच्चे / कुमार कृष्ण

बार-बार सोचता हूँ-
बच्चे याद करें अपना छोटा सा गाँव
याद करें बचपन की शरारतें
अपने मम्मी-पापा, दादा-दादी, नाना-नानी

बच्चे करें याद-
काफल के, खुमानी के पेड़
गुल्ली-डंडा, पिट्ठू, अख़रोट का खेल
पनघट को, खेतों को करें याद-

मैं भूल जाता हूँ-
बच्चे रहते हैं हज़ारों मील दूर महानगर में
बहुत बड़े बनिये की करते हैं नौकरी

बनिया जानता है-
बुखार की तरह बढ़ना चाहिए उसका टर्न ओवर
बनिये के बलॉटिंग ने चूस लिया है-
बच्चों का एक-एक लम्हाँ
उसने ख़रीद ली है पूरी तरह बच्चों की नींद
उनके सपने

भूल चुके हैं वे पूरी तरह बचपन का गाँव
नहीं लौट सकते वे लाख चाहने पर भी
काफल के पेड़ के पास
वे नहीं लौट सकते उन दीवारों के पास
जिनकी मोरियों में रहती थीं लोरियाँ
वे नहीं लौट सकते स्कूली कोट के पास
नहीं लौट सकते बूढ़ी खाँसी के पास
बच्चे अब बच्चे नहीं बड़े हो गये हैं
सत्तू की जगह सिजलर
मालपुए की जगह पास्ता खाने के आदी हो गये हैं
सोचता हूँ-
जब गाँव के तमाम बच्चे चले जाएँगे धीरे-धीरे
बनियों के पास
तब कैसे पहुँचेंगे-
गाँव के तमाम बूढ़े मरघट तक।