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बताओ कवि / संतोष श्रीवास्तव

तुम्हें दिखाई देती है
क़र्ज़से लदे ...
भूखे किसान की खुदकुशी

क्यों नहीं दिखाई देती
ईटे ढोती मजदूरनी के
मन की कसक
जिसका बदन
दिन भर में कितनी ही बार
ठेकेदार के वहशी हाथों ने छुआ है
वह मजबूर है
सब कुछ सहने को
क्योंकि भूख उसके ठंडे चूल्हे में मौजूद है
 
क्यों नहीं दिखाई देती तुम्हें
कामकाजी औरतों की
तड़प जो कितनी ही बार
बॉस के ठंडे केबिन के
ठंडे टेबल पर
अपना गरम बदन
परोसने को मजबूर हैं
क्योंकि भूख उनके घरों के
चूल्हो में भी मौजूद है

हर जगह औरत को
नंगा करती पौरूष आंखें
कब कैसे भूख का
पर्याय बन गई
क्यों नहीं जान पाए तुम ...?

भूख से कुलबुलाती आंते
तृप्त हो जाती है रोटी से
पर रौंदे हुए जिस्म का
नासूर टीसता है
उम्र भर ...