Last modified on 19 जून 2009, at 21:56

बदरंग / कविता वाचक्नवी

बदरंग


कितने बूटे
बेल, बूटियाँ
हरे, गुलाबी
काढ़ो इस पर,
सखे!
दूधिया चादर है यह
धूल, धूप, धक्कड़ खाई-सी
और नियति
बदरंग हुई है।