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बदली की साँझ / अज्ञेय

धुँधली है साँझ किन्तु अतिशय मोहमयी,
बदली है छायी, कहीं तारा नहीं दीखता।
खिन्न हूँ कि मेरी नैन-सरसी से झाँकता-सा
प्रतिबिम्ब, प्रेयस! तुम्हारा नहीं दीखता।

माँगने को भूल कर बोध ही में डूब जाना
भिक्षुक स्वभाव क्यों हमारा नहीं सीखता?

शिलङ्, 28 फरवरी, 1944