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बनावट की हँसी अधरों पे ज़्यादा कब ठहरती है / डी. एम. मिश्र

बनावट की हँसी अधरों पे ज़्यादा कब ठहरती है
छुपाओ लाख सच्चाई निगाहों से झलकती है।

कभी जब हँस के लूटा था तो बिल्कुल बेख़बर था मैं
मगर वो मुस्कराता भी है तो अब आग लगती है।

बहुत अच्छा हुआ जो सब्ज़बाग़ों से मै बच आया
ग़नीमत है मेरे छप्पर पे लौकी अब भी फलती है।

मेरे घर से कभी मेहमाँ मेरा भूखा नहीं जाता
मेरे घर में ग़रीबी रहके मुझ पे नाज़ करती है।

कहाँ से ख़्वाब हम देखें हवेली और कोठी के
हमारी झोपड़ी में आये दिन तो आग लगती है।

जिसे देखो वही झूठा दिलासा देके जाता है
लुटेरे कह रहे निर्धन की भी क़िस्मत बदलती है।