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बन्द खिड़कियां खुलते देखीं / सरोज मिश्र

बड़े दिनों के बाद शहर की बन्द खिड़कियाँ खुलते देखीं

बड़े दिनों के बाद शहर की बन्द खिड़कियाँ खुलते देखीं!
कल-तक शोर दिखा सड़कों पर,
घर गहरी खमोशी में!
डगमग पाँव मिले रिश्तों के,
लोग बाग़ मदहोशी में!
इच्छाओं की अलमारी में,
मृदु भावों की जगह न थी!
प्राण मछरिया कहाँ सांस ले,
इतनी उजली सतह न थी!

लेकिन कैसा जादू है ये, रात अंधेरी सूरज निकला!
जमा मुहाने पर था पारा, अंगुल-अंगुल ऊपर उछला!
शीतल जल में आज गुनगुनी किरणें फिर से घुलते देखीं!
बड़े दिनों के बाद!

एक दौर था छतें घरों की,
नहीं अकेली रहती थीं!
घर की सब दीवारें सुख दुःख,
संग साथ ही सहती थीं!
कब जाने ये अपनेपन का,
ताना बाना टूट गया!
मिलना जुलना हँसी ठिठोली
सबका सबसे छूट गया!

कंकरीट के जंगल में फिर ऐसी बारिश हुई अचानक!
फिर से सोंधी माटी महकी हुए अंकुरित अनगिन बानक!
आज उन्ही वीरान छतों पर चिड़ियाँ दाना चुगते देखीं!
बड़े दिनों के बाद!