राजस्थानी लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
बनड़ी नहाय धोय बैठी बाजोट कांई आमण घूमणो।
बनड़ी कांई मांगे गल हार, कांई दांत्यो चूड़लो।
म्हे तो नहीं मांगा गले हार, कांई दांत्यो चूड़लो।
बनड़ी न्हाय धोय बैठी, बाजोट उणमण धुन में।
बनड़ी कांई मांगे चन्द्र हार, कांई दांत्यो चूड़लो।
म्हे तो नहीं मांगा चन्द्र हार नहीं दांत्यो चूड़लो।
म्हे तो मांगा साजनिया रो साथ वे म्हारे चित्त चढ़े।
बनड़ी पीठड़ली दिन चार रूच रूच मसल्यो।
बनड़ी जिमणियां दिन चार रूच रूच जीमल्यो।
बनड़ी मेंहदड़ली दिन चार हाथां रचाल्यो।
बनड़ी काजलिया दिन चार नैणा रचाल्यो।