पता नहीं कैसे पड़ा उसका नाम बालगोल !
जंगल में गुँजार करता भँवरा था वह
मेरे बब्बा का सबसे गहरा बालसखा ।
जब हम जाते चोना<ref>स्थानीय जंगल में एक जगह का नाम</ref> लकड़ी काटने
वही लाता कालीदहार<ref>स्थानीय जंगल में एक जगह का नाम</ref> के पानी से भरी दपकी
और कुल्हाड़ियाँ टेंय कर
हमारा सत्तू कभी न खाता
गर्व से कहता — ‘बाम्हनों से बड़े हैं हम गोंड ठाकुर
वनदेवता हो जाते हैं कुपित
जो तैरते रहते हैं पहाड़ी नदी के भीतर
अगर कोई तोड़ता है उनका बन्धेज
तो लील जाते हैं बड़े-बड़े मनखों को !’
जंगल था सघन गुप्त गोदावरी से सरभंग,
धारकुण्डी से चित्रकूट तक पसरा हुआ
काले-कलूटे और तगड़े मनुष्यों से विरल आबाद
सूरज की रोशनी भी नहीं छू पाती थी धरती
जंगली पशु करते थे अहर्निश स्वतन्त्र विचरण
मजाल किसी की वहाँ हैल जाए कोई दिनदहाड़े भी !
पर बालगोल पैर जाता था उस जंगल में अधरत्ता
दे आता था कंजरों को लकड़ियाँ
जो छिपकर बनाते थे दारू महुए की
हिनहिनाकर कहती थी पियक्कड़ टोली —
‘देवता दिख जाते हैं दो चुक्कड़ पीते ही,
भाग खुल जाएँगे आज रात गोरी धनिया के ।’
बब्बा चराते-चराते भैंसी-गैय्याँ
अक्सर निकल जाते थे दूर हाथीलोटन<ref>स्थानीय जंगल में एक जगह का नाम</ref> तक
रहते थे चरबा-तेंदू-मकोय की महक में मदहोश
जेठ की भरी दुपहरिया में भी चलता रहता था कुदरत का कूलर
पैढ़ों में टेसू के फूल छिड़कते रहते थे अतर
पेड़ स्वागत करते थे सगे भाइयों जैसे गलबहियाँ डालकर
हर्र, बहेरा, आँवला के दुबले,
ऊँचे-तगड़े सागौन, धवा, गुँजा, महुआ के सबल पेड़ ।
दूर-दूर तक बिखर गए अपने मवेशियों से बेख़बर
बब्बा बैठ जाते थे किसी फटिक शिला पर सम्मोहित होकर
रोमांच से खड़े हो जाते थे उनके रोएँ
आँखें बन जाती थीं चचाई का कूँड़ा<ref>स्थानीय जंगल में एक जगह का नाम</ref>
पलक झपकते ही वह धँस जाते थे त्रेतायुग के जंगलों में ।
तभी गुलचटार की झाड़ियों से निकल पड़ते थे जटा-जूट धारी श्री रामचन्द्र
धनुष-बाण शिथिल कर बदहवास पूछते थे —
‘हे ग्रामवासी ! तुमने देखा है क्या सीता सुकुमारी को ?
भैया लक्ष्मण गुज़रे हैं क्या इस पगडण्डी से ?’
बब्बा उनके चरणों में मूँड़ धरकर निवेदन करते —
‘प्रभु, मैंने नहीं देखा माता का कोई चरण-चिह्न,
आकाश-मार्ग से भी कोई आभूषण नहीं गिरा बतौर निशानी
चलते हैं बालगोल के पास
वह ढूँढ़ देगा एक छिन में सीता मैय्या को
गीध की नज़र है उसकी
सारे जीव दे देंगे सुराग
कि किस रास्ते गई हैं जगज्ज्ननी !’
अचानक आती थी दहाड़ नाहर की चुर से
वनमानुष की आवाज़ निकालने लगता था बालगोल
त्रेता से कलियुग में लौट आते थे बब्बा
उन्हें छोड़ने आता था बालगोल गाँव के तल्ले तक
मवेशियों को बचाता हुआ हिंसक पशुओं से ।
एक बार तो घुस ही आया हमारी पाही में
भादों के बादल की तरह घँघुआता तेन्दुआ
पगहा तोड़ कर भगा दिया मवेशियों को बब्बा ने
लेकिन ख़ुद फँस गए
परदनी में उलझ गया दाहिना पाँव
धामन भागा जंगल की ओर
लाठी के सहारे जानवर के सामने डटे रहे बब्बा
बड़ी देर छकाते रहे उसे
आख़िरकार जूझ ही गए तेन्दुए से
तार-तार हो गई लँगोटी
छतना हो गए हाथ-पैर
लेकिन खपरैल पर चढ़ आया बालगोल
और तेन्दुए को बींध डाला तीरों से !
जब-जब आती विपदा बब्बा पर
अलादीन का जिन बन जाता था बालगोल
लकड़ी हो
लड़ाई हो
जुताई हो
बुवाई हो
मँड़ाई हो
छवाई हो
दराई हो
पिसाई हो
हर बला को लोक लेता था फूल की तरह ।
अपने-अपने बियाह में भी बारात के साथ नहीं
पैदल गए थे बब्बा और बालगोल
नदी का सीना चीरते, पहाड़ उलाँघते
गन्ना चूसते, राई-टप्पा गाते हुए
पहुँचे थे जनवास
टीका, माला, कंकन, दुशाला
सासों ने एक-सा स्वागत किया था जवाँइयों का
दाँत काटी दोस्ती जो थी दोनों की !
भूकम्प का हौसला नहीं
तूफ़ान की ताक़त नहीं
कि उड़ा ले जाए उन बाँसों का छप्पर
जिन्हें दुर्गापुर<ref>स्थानीय जंगल में एक जगह का नाम</ref> से लाता था बालगोल
सागौन-साल-शीशम से बनते गए घर
रेल की पटरियों से भी ज्यादा मजबूत
धरती पर बिछता रहा गाँव
उसे पालता-पोसता रहा जंगल ।
पेड़ों की हमेशा पैलगी करता था बालगोल
घुसने नहीं देता था जंगल में किसी को जूते पहनकर
कि मसल न जाए अँखुआ एक पौधे का भी
पर्णकुटी में करता था गुज़र
उसकी सम्पत्ति का ज़िक्र कभी नहीं सुना किसी ने
‘बस्तर से बाइबिल तक फैले हैं उसके नाती-गोती’ – कहा करते थे बब्बा ।
कालान्तर में गाँव वालों ने बनाने चाहे अपने-अपने बालगोल
अब तक गाँव को पाल रहा था जंगल
अब पालनहार को ही निगलने लगे गाँव
झीना होता गया नदी-पहाड़ का परदा
रेंजर आए, मुँशी आए
बड़े-बड़े खरदूषण धाए
लेते रहे जंगल का दामन तार-तार करने की तनख़्वाहें
अब राम-बनवास के लिए भी नहीं बचा था वन
अयोध्या से साफ़-साफ़ नजर आती थी लंका
बदल रही थी बालगोलों की नस्ल
मवेशी ही नहीं, लाठी भी नहीं बची थी बब्बा के पास
जंगल का पिरामिड बन गया था बब्बा का बालगोल ।
उन्हीं दिनों किसी मुँहअन्धेरे मिले दोनों बालसखा
फिर नहीं देखा गया उन्हें उसके बाद
कहते हैं कि वे चले गए कामदगिरि की तरफ़
अपने बचपन के जंगल की तलाश में
जिसका ज़िक्र किसी पुराण में आता था ।
उस घड़ी के बाद एक-एक दातून के लिए मोहताज हो गए गाँव वाले
चिता जलाने तक को मयस्सर नहीं थीं लकड़ियाँ
पेड़ तो कब के मर चुके थे
बब्बा और बालगोल के शोक में !