Last modified on 19 मई 2008, at 19:00

बम्बई-2 / विजय कुमार

बाहर तब रात थी

हमने पाँव

घुटनों तक समेट लिए थे


पूरी रात हमने देखा

ख़ाली जगहों पर इमारतें खड़ी हो रही थीं

पूरी रात

लाचार समुद्र

शहर से कुछ और दूर खिसक रहा था

पूरी रात

पिता बग़ल में पोटली दबाए

शहर में पता ढूंढते फिर रहे थे

पूरी रात

क्षितिज पर इंजन गरज रहे थे


काग़ज़ों के ढेर पर ढेर

लगते गए इमारतों से भी ऊँचे

घने कोहरे में

चीखें और आत्महत्याएँ थीं

पूरी रात

हवाएँ लाती रहीं अपने साथ

जलते हुए रबड़ की दुर्गन्ध


आकाश

यह कैसा आकाश था

इतनी रात और अंधेरे में

अपने साथ

कोई स्मृति भी नहीं

इस तरह हम

छूटते गए अकेले

नहीं यह बुख़ार नहीं था

हम स्तब्ध पड़े थे

ख़ामोश

वह हँसी

हमारी नहीं थी

छाती से निकलती हुई

खोखली हो...हो...