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बम्बई-5 / विजय कुमार

एक दिन हम

इस शहर के समुद्र में

कूदकर जान दे देंगे

और

दूर उपनगर में

मित्र हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे


हम

समुद्र की तलहटी में

इस छोटे से शहर में

अपनी यात्राओं की

कहानियाँ बुनेंगे


समुद्र के नीचे भी

एक समुद्र है

वहीं मिलेंगे पिता-दादा-नाना

शहर के तमाम बूढ़े


वे अपनी खाँसी और दमे में

इस शहर को

गा रहे होंगे


इसी समुद्र के भीतर

दोपहर में पंछी

उड़ रहे होंगे

चिमनियाँ धुआँ

उगल रही होंगी

ज़रा-सी आवाज़ पर

बच्चे घर से बाहर दौड़ आएंगे

और मोटरों के नीचे कुचल जाएंगे


हाँ, शहर में

हम अपनी ही छायाओं से

बात करेंगे

मोती और शंख बीन कर

घर लौटते हुए

हताश होंगे


हमारे ही चेहरे

हमारी ही

जर्जर उंगलियाँ

इस शहर के समुद्र में

पर्वतों की चोटियाँ

सहला रही होंगी

कोई नहीं देखेगा उन्हें


एक दिन

हमारी कमर झुक जाएगी

जीवन चुक गया लगेगा

एक दिन

जब हम झूठी उम्मीदों से परे होंगे

हम फिर इसी समुद्र में

एक और समुद्र के किनारे आएंगे

एक दिन ।