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बरगदी छाया से दूर / शिव कुशवाहा

पुराने बरगद
नहीं पनपने देते नए पौधे
जहाँ तक छाया रहती है
वहाँ नहीं उगने देते नई किल्लियाँ
उसकी आत्महंता जड़े
सोख लेती है धरती की उर्वरा शक्ति
जहाँ कुछ उग आने की संभावना के इतर
उगने से पहले ही
सूख जाती हैं नवकोंपलें।

फैलती हुई जड़ों की परिधि
विस्तार लेती हुईं उसकी शाखाएँ
कद ऊंचे से और अधिक ऊंचा होता हुआ
जहाँ वह नहीं देखता
अपने आस पास
छोटे छोटे नव विकसित कोपलें
जो हरियाना चाहती हैं
लेकिन बरगद
आखिरी दम तक
सोख ही लेते हैं उनकी प्राण वायु...

बरगदी छाया से दूर
उगते हुए नये पौधे
धीरे धीरे उठ रहे हैं ऊपर
अपने आस पास उग आये नए कोंपलों को
बांटते है उर्वरा शक्ति,
धरती में पनपती हुई अनेक तरु शिखाएँ
घटित होते हुए समय की असलियत
पहचान ही लेती हैं
कि बरगदी छाया
आत्मुग्ध बरगद की एक स्थिति है...