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बरगद-1 / राजा खुगशाल

जब से वह उगा
और अपने पैरों पर खड़ा हुआ
अपने आस-पास की चीजों को
गायब नहीं होने दिया उसने

गाँव के सुख-दु:ख में शामिल
वह गाँव का बरगद है
सारा गाँव कृतज्ञ है उसका

आते-जाते हर मुसाफिर के लिए
धूप के आतप को आसमान से सहता हुआ

साल दो साल में
हफ्ते दस दिनों के लिए
जब भी जाता हूँ गाँव
बरगद पूछता-कैसे हो
कहां रहे इतने दिनों तक?

उसकी छाया को छू तक नहीं सकी धूप
खेतों से लौटकर लोग
कंधों से बोझ उतारते हैं जिसमें
थकान उतरती है
बच्चेउ खेलते हैं
बैठकें जमती हैं दिन-रात

बकरियाँ मिमियाती हैं
जुगाली करते हैं बैल
आकाश की थाह लेते हुए उड़ते
और उतरते हैं गरुड़

बरगद की टहनियों से बसंत बोलता है
बरगद के तने पर अपने नाम लिखकर
रोजी-रोटी के लिए
शहर चले आते हैं गाँव के युवक।