अपने पत्तोंक से हवा को
नि:शब्दत नहीं बहने देता
ॠषि-बरगद
उसके साथ गूंजती हैं दिशाएँ
सर्रसर्राता है समय
असयम घिर आईं घटाओं को
ऐसे उड़ाता है वह
सेब के पेड़ों से जैसे
तोते उड़ाते हैं लोग
बरगद के चौंरे से फूटते हैं
कहकहों के उन्मुेक्त झरने
उसके इर्द-गिर्द मेला लगता है हर साल
बांहों में बांहें डालकर थिरकती हैं संध्यााएँ
घरों में पहुंचती हैं
फसलों की खुशियाँ
बरगद की छाया में
फूलता-फलता है गाँव का प्रजातंत्र
बरगद का वह पेड़
सिर्फ पेड़ नहीं
छत की तरह छायी ताकत है
दुखों को चुनौती देती हुई जान है
पहचान है गाँव की।