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बरजोरा कौ समरपन / शिवानन्द मिश्र 'बुन्देला'

कठिन जेठ कौ घाम तचैं, गुस्सा में सूरज,
बरजोरा बिलमो पहूज के नीरें-तीरें
आठ बिना कढ़ गए न एकउ फँसो बटोही
दार-चून-घी निगट रही है धीरें-धीरें।
सात डाकुअन कौ पहरौ है नदी-घाट पै
बीस ज्वान बरजोर सिंह के हैं रखवारे,
हुकुम कठिन है सब रस्तागीरन कों लूटौ,
निकर न पाबै कोऊ सम्पत बिना निकारे।
तपैं ग्रीष्म महाराज बुँदेलन की धरती है
नीचें तचै ततूरी, ऊपर अँगरा बरसें,
डरे जनावर भार भटोलन भीतर हाँपैं,
मानुस-पच्छी कठिन समइया कढ़ें नघर सें।
संगै छै असवार बाई जू भाजत आबैं,
उनके तन के ऊपर चढ़ गइ धूरइ-धूरा
ऐसौ लगै कि दौर रही है सिंह भवानी,
संगै दौरत आँय अघोरी भूत-भभूरा।
तान तुपकियाँ ठाड़े ह्वै गए सातउ डाँकू,
गैल छैंक लई, ‘रोकौ धोरे’, हाँक लगाई;
गोरा धरें पछारी, आँगें करिया रोकें,
का अनहोनी, चौंकी रानी लक्ष्मीबाई।
बोली, ‘को हौ ठाकुर? गैल काए खाँ छैंके?
का अनवाद करो घोरन नें? रहे रुकाई।
बूढ़ौ दउवा बालो, ‘हम हैं डाकू ठाकुर,
लूटन आए तुम्हें’, तुरन्त आँख चढ़ आई-
रानी बोली, ‘को है मुखिया?’ ‘है बरजोरा!’
‘कितै?’ ‘परे सोउत हैं, उतै करौंदी छाँई।’
”चलौ बताऔ, दो-दो बातें करकें जैहें“
पीछें-पीछें डाँकू, आँगें लक्ष्मीबाई।
संगी दओ जगाय, उठो तुरतई बरजोरा
देखो आउत घुड़सवार बक्षस्थल तानें
चढ़ती उम्मर, ेख न निकरी, पैनी आँखें,
टेढ़ी बाँधें पाग, भाल मोती लहरानें।
दग-दग दमकै माथौं ईंगुर पोतो मानों
राजन की पोसाक बिधाता रूप समारौ,
लै पाँचउ हँतयार हाँत में नंगौ तेगा
चढ़ तुरंग की पीठ स्वयं बीरत्व पधारौ।
पाँव रकेबन जमे, कसो पीठी सें बालक
बघवाबै चहुँओर बैरियन की घातन में,
सने रकत में वस्त्र, अस्व ज्यों बिजली-कौंधा,
ऐसौ लगै सजीवन यौवन कूँदौ रन में।
ठाढ़ौ भओ तुरन्त समर बागी बरजोरा,
तड़पी रानी, ‘क्यों तुमनें मारग रुकवाओ?’
डाँकू उत्तर देत, ”लूट है रोजी अपनी,
को हौ अपुन? कहाँ के? हमनें चीन्ह न पाओ।“
”आँखें खोलौ, चीनौं, खोलौ कान सुनाबैं-
अँगरेजन सें छिड़ गओ है संग्राम भयंकर
मरबे और मारबे हेत फिरौं भन्नानी।
गओ मोरचा टूट हमाओ झाँसीवारौ,
धाबा करो कालपी में अब बजहै तेगा
हूहै बरछी-बन्दूकन के संग सगाई
खार-कछारन में जमना के चुकहै नेगा।
मूँछ मुँछारे मुंस! तुम्हारी क्षत्री काया
पौरुष जो है? बने आज अबला के घाती!
मैं नारी ह्वै जूझ रही भारत-बैरी सें
रे क्षत्री नर, हाय न फट गई तोरी छाती!
अपनी झाटसी गई गड़ौ दुसमन कौ झंडा,
बीर सिपाही तरवारन कौ पी गए पानी
धरती कर गए लाल रकत कौ लिख गए साकौ,
जूझे आठ हजार लाल प्रानन के दानी।
तुमनें रस्ता रोकी, बैरी लगे पछारीं
मजल चले हैं घोरे, घायल देह हमारी
आगी उगलै धरती झोराँ लपट झँझाबै
कारे कोसन बसी कालपी जेठ दुफारी।
देखौ मोरे संगी, पाँच पुरुस; दो नारी-
मैं, जा सुन्दर, पक्की मोरी संग सहेली
घोरे देखौ सात हमाए हाँपी छोड़ंे
घावन भरे सरीर करारी विपदा झेली।
पसु हैं घोंरे, जान देत, अबला है संगिन
तुम हौ क्षत्री मुंस, छैक लइ गैल हमाई
हे राणा, हे सिवा, हमें अब दोस न दिइयो!“
लम्बी भरी उसाँस, चुप्प भई लक्ष्मीबाई।
देखत मौं रह गओ रानी कौ ठाँड़ो ठाकुर
रोम-रोम जग परौ सिथिल-सी ह्वै गई बानी,
लैन हिलोरें लगो रकत पुरखन कौ तातौ
तुरग दिखानों सिंह, छबीली सिंह भवानी।
सन्त-मण्डली जैसें बालमीक मन पलटौ,
अंगुलिमाल कान ज्यों परी बुद्ध की बानी,
रानी की उसाँस बरछी-सी हुकी हृदय में,
डाँकपन की भई कुटिलता पानी-पानी।
टपर-टपर आँखिन से अँसुवा टपकन लागे
घूँटे टेक दए, नंगी लइ खेंच सिरोही,
बाई साब के आँगें भींजी बनो बिलइया
बौ बरजोरा दस्युराज कट्््र निरमोही।
आत्मघात करबे की मन में बात बिचारी
‘खबरदार हो’, रानी नें ललकार लगाई
”प्रान कर रहे दान तौ फिर बैरी संग जूझौ
घरी दो घरी राकौ, करौ सहाय हमाई।“
झटका दैकें ह्वै गओ ठाड़ौ, तन गई छाती
सिथिल अंग में जैसें महासक्ति घुस आई,
दई हुंकार कि जैसे बन में सिंह डड़ीकै
‘बढ़ौ साथियो!’ बरजोरा तरवार घुमाई।
”पार पहूज होय गोरन कौ मोहरा मारौ
रजपूती की लाज बचालो बढ़कें प्यारे
धजी-धजी काया, खपरी हो टूँका-टूँका
चलो बहादो मोरे भइय रकत पनारे।“
लै-लै निज हथयार सज गये उनतिस जोधा
आँगें-आँगें भैंससा-बाँधी तोप हँकाई
दो संगी रानी नें छोड़ें, पाँचइ लैकें
सुमिर गजानन कों, घोरे कैं एड़ लगाई।
टपक-टपक टप-टप-टप घोरे भाजन लागे
उड़ी गुंग धूरा की, छिन में उड़ गई रानी
हाँत जोर के अंतिम नमन करो डाँकू नें
चूम लई तरबार, आँख कौं पोंछो पानी।