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बरसाती नदी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

अभिशप्त-सी लेटी हुई है
असहाय बरसाती नदी ।
बगूलों को शीश पर
लपेटे नज़र आती नदी ।।


रेत के लम्बे सफर में
हाँफने लगी है धूप ।
हुआ दुर्लभ दो बूँद जल
तृषित छटपटाती नदी ।


रूठकर बैठा है मौसम
मेघ परदेसी हुए ।
थक गई हर रोज़ इक
यहाँ भेजकर पाती नदी ।


गए पखेरू छोड़ करके
नीड़ अपने तीर के ।
बीते दिनों की याद कर
रह– रह अकुलाती नदी ।।


जब बरसते मेघ छमछम
सभी किनारे तोड़कर।
बस्तियों को लील करके
बहुत कहर ढाती नदी ।।