हमारी छोटी उम्र में
बरसात बड़ी मुश्किलें लेकर आती।
हालांकि हमने
बरसात में कागज़ की नाँव चलाई
गलियों में भरे पानी में उछले-कूदे
ओले चुगकर खाये
बारिस बंद करवाने के लिए
उलटे तवे-परात बजाये
मगर यह सब ज्यादा दिन नहीं चला।
हमारे कमरे की छत
घंटे दो घंटे की बारिश ही सह पाती
झड़ लगता तो हमारी शामत आ जाती
छत से पानी टपकना शुरू होता तो
सबसे पहले पापा चूने वाली जगह को
लाठी से ठोकते
ताकि चूने वाला स्थान उभारकर
छत का चूना बंद किया जा सके।
विफल होने पर
कट्टा या बोरी ओढ़कर
घुप अँधेरी रात में ही छत पर चढ़ा जाता
हाथ से पूरी छत लेहसी जाती।
छत पर चढ़ने-उतरने के लिये
दीवार में निकली ईंटों का प्रयोग होता
जिनसे रिपटने का खतरा बराबर बना रहता।
तिस पर छत का टपकना बढता जाता
पूरी छत जगह-जगह से टपकने लगती
छोटे से कमरे में जगह-जगह
बाल्टी, तसला, भिगौना, आदि रखे जाते
जिनका पानी बार-बार बाहर फेंकना होता।
फिर भी नौबत
घर में रखे बर्तनों और कपड़ो के
भीगने की आ जाती।
एक खाट दरवाजे के बीचोबीच बिछाई जाती
जो आधी कमरे में
और आधी बाहर छप्पर में होती
यही स्थान पानी के चूने से बचा रहता
इसी खाट पर काम की चीजें
और हम बच्चे सिमटने लगते
बाकी सब अपनी-अपनी जगह
खामोश भीगते हुए
बारिश बंद होने की बाट जोहते।
भीगते-भीगते हम एक-दूसरे पर
अपनी-अपनी खीज निकालते
माँ कहती-
इत्ते दिन हो गये नाशगये को
दूसरों के घर बनात्ते-बनात्ते
आज तक अपनी छान पर
ढंग का फूस तक नी डाल सका
हममें से कोई कहता-
हर बार का यो ही ड्रामा है
एक पन्नी तक नी लाके रखी जा सकती
पापा चुपचाप कपड़े संगवाने में लगे रहते
माँ बड़बड़ाती हुई
बर्तन-भांडे सँवारती।
माँ की आँख से टपकते आँसू
बारिश के पानी में धुलते रहते।
हम बच्चे एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए
पसर जाने की
जगह बनाने के जुगाड़ में लगे रहते
पूरी-पूरी रात ऐसे ही निकल जाती।
सर्दियों की बारिश में
रिजाई का निचोड़ना सबसे भारी पड़ता।
धीरे-धीरे भीगती रिजाई में
पापा का सुनाया किस्सा याद आता-
एक साल बहुत ओले पड़े
हमारे पास बड़ी ठाड़ी भूरी भैंस थी
कमरे में एक भैंस के खड़े होने की ही जगह थी
उस रात नन्नो बुढ़िया की लड़ाकू भैंस
खुंटा तुड़ाके हमारे घर में घुस आयी
काफी कोसिस के बाद
वो घर से ना निकली
सारी रात हमारी भूरी भैंस
छप्पर में खड़ी-खड़ी ओलों में छितती रही
रींकती रही
सुबह तक न छप्पर पर फूस बचा
न भूरी भैंस पर खाल।
मरी ही निकली बिचारी भूरी भैंस।
रिजाई पर पड़ती
बारिश की एक-एक बूँद हमें
भूरी भैंस की पीठ पर पड़ते
ओले की तरह महसूस होती
मन भीतर-भीतर रींकता रहता॥