बारिश भरी शामों में
इक नमी बूँद-सी सिहरती
ज्यूँ मन की निर्झरणी उफान पर हो
समय स्फटिक-सा त्वरित बदलता
फुहार से दिन
और
भींगे काजल-सी स्याह रातें
धरा अभी सद्य स्नाता-सी निखरी
सब कुछ आर्द्र
विरह ज्यूँ जल समाधि में तटस्थ
लीन
मेरी पुकार की तरलता
घटा बन नभ पर छाई है
यूँ भींगता है, मौसम
ज्यूँ अब रूक्ष कुछ ना रहा
तुम्हारे नेह की बूँदों से सब सरोबार है
गीले बालों को कांधे पर किनारा दे रही
बरसात वेग से
बंधन और भ्रम दोनों ध्वस्त करती!
नदियाँ उफान पर हैं
समय अपनी तरुणाई पर मुग्ध हो रहा!