हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट, बाग़ात की बहारें।
बूँदों की झमझमाहट, क़तरात की बहारें।
हर बात के तमाशे, हर घात की बहारें।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥1॥
बादल हवा के ऊपर, हो मस्त छा रहे हैं।
झाड़ियों की मस्तियों से धूमें मचा रहे हैं।
पड़ते हैं पानी हरजा<ref>हर जगह</ref>, जल थल बना रहे हैं।
गुलज़ार<ref>बाग़</ref> भीगते हैं सब्जे नहा रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥2॥
मारे हैं मौज डाबर, दरिया उमड़ रहे हैं।
मोरो पपीहे कोयल, क्या क्या रुमंड़ रहे हैं।
झड़ कर रही हैं झड़ियां नाले उमड़ रहे हैं।
बरसे हैं मेंह झड़ाझड़, बादल घुमंड रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥3॥
जंगल सब अपने तन पर, हरियाली सज रहे हैं।
गुल फूल झाड़ बूटे कर अपनी धज कर रहे हैं।
बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं।
अल्लाह के नक़ारे, नौबत के बज रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥4॥
बादल लगा टकोरें नौबत की गत लगावें।
झींगर झंगार अपनी सूरनाइयां बजावें।
कर शोर मोर बगले, झड़ियों का मुंह बुलावें।
पी पी करें पपीहे, मेंढ़क मल्हारें गावें।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥5॥
हर जा बिछा रहा है सब्ज़ा हरे बिछौने।
कु़दरत के बिछ रहे हैं, हर जा हरे बिछौने।
जंगलों में हो रहे हैं पैदा हरे बिछौने।
बिछवा दिये हैं हक़ ने क्या-क्या हरे बिछौने।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥6॥
सब्जों की लहलहाहट कुछ अब्र<ref>बादल</ref> की सियाही।
और छा रही घटाएं, सुर्ख़ और सफ़ेद, काही।
सब भीगते हैं घर-घर, ले माह ताब<ref>चांद</ref> माही<ref>मछली आकाश से पाताल तक</ref>।
यह रंग कौन रंगे, तेरे सिवा इलाही।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥7॥
क्या-क्या रखे हैं या रब, सामान तेरी कु़दरत।
बदले हैं रंग क्या-क्या, हर आन तेरी कु़दरत।
सब मस्त हो रहे हैं, पहचान तेरी कु़दरत।
तीतर पुकारते हैं, ”सुब्हान तेरी कु़दरत।“
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारे॥8॥
कोयल की कूक में भी, तेरा ही नाम हैगा।
और मोर की जटल<ref>मोर की आवाज</ref> में तेरा पयाम हैगा।
यह रंग सौ मजे़ का जो सुबहो शाम हैगा।
यह और का नहीं है तेरा ही काम हैगा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥9॥
बोले बये बटेरें, कु़मरी पुकारें कू कू।
पी पी करें पपीहा, बगुले पुकारें तू तू।
क्या हुदहुदों की हक़ हक़, क्या फ़ाख्तों की हू हू।
सब रट रहे हैं तुझको क्या पंख क्या पखेरू।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥10॥
जो मस्त हों उधर के कर शोर नाचते हैं।
प्यारे का नाम लेकर क्या ज़ोर नाचते हैं।
बादल हवा से गिर गिर, घनघोर नाचते हैं।
मेंढ़क उछल रहे हैं, और मोर नाचते हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥11॥
फूलों की सेज ऊपर सोते हैं कितने बन बन।
सोहैं गुलाबी जोड़े फूलों के हार अबरन।
कितनों को घर है खाता सूना लगे है आंगन।
कोने में पड़ रही हैं सर यूं लपेटे सोगन<ref>शोक में डूबी हुई</ref>।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥12॥
जो खु़श हैं वह खु़शी में काटें हैं रात सारी।
जो गम में हैं उन्हों पर, गुज़रे हैं रात सारी।
सीनों से लग रही हैं, जो हैं पिया की प्यारी।
छाती फटे है उनकी, जो हैं बिरह की मारी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥13॥
जो वस्ल में हैं उनके जोड़े महक रहे हैं।
झूलों में झूलते हैं, गहने झमक रहे हैं।
जो दुख में हैं उनके सीने फड़क रहे हैं।
आहें निकल रही हैं, आंसू टपक रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥14॥
अब बिरहनों के ऊपर है सख़्त बेकरारी।
हर बूंद मारती है सीने उपर कटारी।
बदली की देख सूरत कहती है बारी बारी।
हैं हैं न ली पिया ने अबके भी सुध हमारी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥15॥
जब कोयल अपनी उनको आवाज है सुनाती।
सुनते ही ग़म के मारे छाती है उमड़ी आती।
पी पी की धुन को सुनकर बेकल है कहती जाती।
मत बोल ऐ पपीहे, फटती है मेरी छाती।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥16॥
है जिनकी सेज सूनी और खाली चारपाई।
रो रो उन्होंने हर दम, यह बात है सुनाई।
परदेशी ने हमारी अबके भी सुध भुलाई।
अबके भी छाबनी जा, परदेश में ही छाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥17॥
कितनों ने अपनी ग़म से अब है यह गत बनाई।
मैले कुचैले कपड़े, आंखें भी डबडबाई।
ने घर में झूला डाला, ने ओढ़नी रंगाई।
फूटा पड़ा है चूल्हा, टूटी पड़ी कढ़ाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥18॥
गाती है गीत कोई, झूले पे करके फेरा।
”मारू जी, आज कीजै यां रैन का बसेरा।“
है खुश कोई किसी को दर्दो ग़म ने घेरा।
मुंह ज़र्द<ref>पीला</ref>, बाल बिखरे, और आंखों में अंधेरा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥19॥
और जिनको अब मुहय्या, हुस्नों की ढे़रियां हैं।
सुर्ख़ और सुनहरे कपड़े, इश्रत की घेरियां हैं।
महबूब दिलबरों की जुल्फें बिखेरियां हैं।
जुगनू चमक रहे हैं, रातें अंधेरियां हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥20॥
कितने तो भंग पी पी, कपड़े भिगो रहे हैं।
बाहें गलों में डाले झूलों में सो रहे हैं।
कितने विरह के मारे, सुध अपनी खो रहे हैं।
झूले की देख सूरत, हर आन रो रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥21॥
बैठे हैं कितने खु़श हो, ऊंचे हवा के बंगले।
पीते हैं मै के प्याले, और देखते हैं जंगले।
कितने फिरे हैं बाहर, खू़बां<ref>सुन्दरियों</ref> को अपने संग ले।
सब शाद<ref>खुश</ref> हो रहे हैं, उम्दा, ग़रीब, कंगले।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥22॥
कितनों को महलों अन्दर, है, ऐश का नज़ारा।
या सायबान सुथरा, या बांस का उसारा<ref>बरामदे का छाजन, छप्पर</ref>।
करता है सैर कोई कोठे का ले सहारा।
मुफ़्लिस भी कर रहा है, पूले<ref>फूस-मूंज आदि का बंधा हुआ मुट्ठा</ref> तले गुज़ारा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥23॥
छत गिरने का किसी जा, गुल शोर हो रहा है।
दीवार का भी धड़का, कुछ होश खो रहा है।
डर डर हवेली वाला हर आन रो रहा है।
मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> सो झोंपड़े मंे दिल शाद<ref>खुश</ref> हो रहा है।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥24॥
मुद्दत से हो रहा है, जिनका मकां पुराना।
उठके है उनको मेंह में, हर आन छत पे जाना।
कोई पुकारता है ”टुक मोरी खोल आना“।
कोई कहे है चल भी क्यों हो गया दिवाना।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥25॥
कोई पुकारता है लो, यह मकान टपका।
गिरती है छत की मिट्टी और सायबान टपका।
छलनी हुई अटारी कोठी निदान टपका।
बाकी था एक उसारा, सो वह भी आन टपका।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥26॥
ऊंचा मकान जिसका है पच खनां सवाया।
ऊपर का खन टपक कर अब पानी नीचे आया।
उसने तो अपने घर में, है शोरो गुल मचाया।
मुफ़्लिसस पुकारते हैं जाने हमारा जाया।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥27॥
सब्जों पे वीरबहूटी, टीलो ऊपर धतूरे।
पिस्सू से मच्छड़ों से, रोये कोई बिसूरे।
बिच्छू किसी को काटे, कीड़ा किसी को घूरे।
आंगन में कनसलाई, कोनों में कनखजूरे।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥28॥
फंुसी किसी के तन में, सर पर किसी के फोड़े।
छाती पे गर्मी दाने और पीठ में ददौड़े।
खा पूरियां किसी को हैं लग रहे मड़ोड़े।
आते हैं दस्त जैसे दौड़ें इराक़ी<ref>इराक के</ref> घोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥29॥
पतली जहां किसी ने दाल और कढ़ी पकाई।
मक्खी ने त्यूं ही बोली आ ऊंट की बुलाई।
कोई पुकारता है क्यूं खै़र तो है भाई।
ऐसे जो खांसते हों क्या काली मिर्च खाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥30॥
जिस गुल बदन के तन में पोशाक सोसनी है।
सो वह परी तो ख़ासी काली घटा बनी है।
और जिस पे सुर्ख़ जोड़ा, या ऊदी ओढ़नी है।
उस पर तो सब घुलावट, बरसात की छनी है।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥31॥
बदनों में खप रहे हैं खू़बों के लाल जोड़े।
झमकें दिखा रहे हैं परियों के लाल जोड़े।
लहरें बना रहे हैं, लड़कों के लाल जोड़े।
आंखों में चुभ रहे हैं, प्यारों के लाल जोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥32॥
और जिस सनम के तन में, जोड़ा है जाफ़रानी।
गुलनार<ref>अनार के फूल के रंग जैसे</ref> या गुलाबी या जर्द, सुर्ख़, धानी।
कुछ हुस्न की चढ़ाई और कुछ नई जवानी।
झूलों में झूलते हैं, ऊपर पड़े है पानी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥33॥
कोई तो झूलने में, झूले के डोर छोड़े।
या साथियों में अपने, पांवों से पांव जोड़े।
बादल खड़े हैं सर पर, बरसे हैं थोड़े-थोड़े।
बूंदों से भीगते हैं लाल और गुलाबी जोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥34॥
कितनों को हो रही है इस ऐश की निशानी।
सोते हैं साथ जिसके कहती हैवह सियानी।
”इस वक्त तुमन जाओ ऐ मेरे यार जानी।
देखो तो किस मजे़ से बरसे है आज पानी“।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥35॥
कितने शराब पीकर हो मस्त छक रहे हैं।
मै के गुलाबी आगे प्याले छलक रहे हैं।
होता है नाच घर-घर घुंघरू झनक रहे हैं।
पड़ता है मेह झड़ाझड़ तबले खड़क रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥36॥
हैं जिनके तन मुलायम, मैदे की जैसे लोई।
वह इस हवा में खासी ओढ़े फिरें हैं लोई।
और जिनकी मुफ़्लिसी ने, शर्मो हया है खोई।
है उनके सर पे सिरकी या बोरिये की खोई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥37॥
कितने फिरें हैं ओढ़े पानी में सुर्ख़ पट्टू।
जो देख सुर्ख़ बदली, होती है उनपे लट्टू।
कितनों के गाड़ी रथ हैं, कितनो के घोड़े टट्टू।
जिस पास कुछ नहीं है वह हमसा है निखट्टू।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥38॥
जो इस हवा में यारो दौलत में कुछ बड़े हैं।
हैं उनके सर पर छतरी, हाथी ऊपर चढ़े हैं।
हमसे ग़रीब गुरबा कीचड़ में गिर पड़े हैं।
हाथों में जूतियां हैं और पांयचे चढ़े हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥39॥
है जिन कने मुहैया पक्का पकाया खाना।
उनको पलंग पे बैठे झाड़ियों का हिज़<ref>आनन्द, मजा, सुख</ref> उड़ाना।
है जिनको अपने घर का यां नीन तेल लाना।
है सर पै उनके पंखा, या छाज है पुराना।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥40॥
कितने खु़शी से बैठे, खाते हैं खु़श महल में।
कितने चले हैं लेने, बनिये से कर्ज़ पल में।
कांधे पै दाल, आटा, हल्दी गिरह की बल में।
हाथों में घी की प्याली और लकड़ियां बग़ल में।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥41॥
कोई रात को पुकारे ”प्यारे मैं भीगती हूं“।
”क्या तेरी उल्फ़तों की मारी मैं भीगती हूं“।
”आई हूं तेरी ख़ातिर आ रे मैं भीगती हूं“।
”कुछ तो तरस तू मेरा खारे में भीगती हूं“।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥42॥
कोई पुकारती है ”दिल सख़्त भीगती हूं।“
”कांपे है मेरी छाती, यकलख़्त भीगती हूं।“
”कपड़े भी तर बतर हैं और सख़्त भीगती हूं।“
”जल्दी बुला ले मुझको कमबख़्त भीगती हूं।“
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥43॥
कोई पुकारती है ”क्या क्या मुझे भिगोया।“
कोई पुकारती है ”कैसा मुझे भिगोया।“
”नाहक़ क़रर करके, झूठा, मुझे भिगोया।“
”यूं दूर से बुलाकर, अच्छा मुझे भिगोया।“
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥44॥
जिन दिलबरों की ख़ातिर, भीगे हैं जिनके जोड़े।
वह देख उनकी उल्फ़त होते हैं थोड़े-थोड़े।
ले उनके भीगे कपड़े हाथों में धर निचोड़े।
चीरा कोई सुखावे, जामा कोई निचोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥45॥
कीचड़ से हो रही है, जिस जा ज़मीं<ref>स्थान, जगह</ref> फिसलनी।
मुश्किल हुई है वां से हर एक को राह चलनी।
फिसला जो पांव पगड़ी मुश्किल है फिर संभलनी।
जूती गड़ी तो वाँ से क्या ताब फिर निकलनी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥46॥
कितने तो कीचड़ों की दलदल में फंस रहे हैं।
कपड़े तमाम गंदे दलदल में बस रहे हैं।
कितने उठे हैं मर-मर, कितने उकस रहे हैं।
वह दुःख में फंस रहे हैं और लोग हंस रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥47॥
कहता है कोई गिर कर, यह ऐ खु़दाए लीजो।
कोई डगमगा के हर दम कहता है बाये लीजो।
कोई हाथ उठा पुकारे मुझको भी हाय लीजो।
कोई शोर कर पुकारे गिरने न पाये लीजो।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥48॥
गिर कर किसी के कपड़े दलदल में हैं मुअ़त्तर<ref>महका हुआ, भीगे हुए</ref>।
फिसला कोई किसी का कीचड़ में मंुह गया भर।
एक दो नहीं फिसलते, कुछ इसमें जान अक्सर।
होते हैं सैकड़ों के सर नीचे पांव ऊपर।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥49॥
यह रुत वह है कि जिसमें खुर्दों कबीर<ref>बड़ा</ref> खु़श हैं।
अदना, गरीब, मुफ़्लिस, शाहो वजीर खु़श हैं।
माशूक शादो<ref>खुश</ref> खु़र्रम<ref>प्रसन्न, खुश</ref> आशिक असीर<ref>बंदी, कैदी</ref> खुश हैं।
जितने हैं अब जहां में, सब ऐ ”नज़ीर“ खुश हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥50॥