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बरसाने की राधिका / रश्मि प्रभा

साठ की कुछ सीढ़ियां चढ़ तो गई है वह स्त्री,
लेकिन वह उम्र और कर्तव्यों का
एक ढांचा भर है!
प्रेम उसका सपना था
प्रेम उसकी ख्वाहिश थी
अपनी पुरवा सी आंखों में
उसने प्रेम के बीज लगाए थे
प्रेम की सावनी घटा बनकर
धरती के कोने कोने में
थिरक थिरक कर बरसी थी।
इंद्रधनुष के सातों रंग
उसके साथ चलते थे,
गति की तो पूछो मत
हिरणी भी हतप्रभ हो दांतों तले उंगली दबाती थी।
ख्यालों में उसके कोई देवदार सा होता
और वह अल्हड़ लता सी
उससे लिपट जाती थी,
प्रेम का अद्भुत नशा था
अद्भुत उड़ान थी
कब वह कैक्टस से उलझी
कब उसके पंख टूटे
जब तक वह समझे
संभले
वह दो उम्र में विभक्त हो चुकी थी,
एक प्रेम
एक मौन कर्तव्य!
मौन कर्तव्यों की यात्रा में
उसके चेहरे पर
कब थकान की पगडंडियां उगीं
कब बालों का रंग मटमैला हुआ
कब पैरों के घुटने समाधिस्थ हुए
उसे खुद भी पता नहीं चला।
तस्वीरों में
आईने में कई बार
खुद को ही नहीं पहचान पाई है
क्योंकि ख्वाबों में आज भी वह
विद्युत गति से नृत्य करती है
अनिंद्य सुंदरी बन
अपनी पलकों को झपकाते हुए
प्रेम के शोखी भरे गीत गाती है
सुनती है -
रावी और चनाब के किनारे
उसके नाम की तरंगें उछालते हैं
एक उसे हीर कहता है
एक अपनी सोहणी बताता है
और दोनों किनारों के
दरमियान खड़ा
एक जवां अधीर साया
उसके कानों में गुनगुनाता है
"जलते हैं जिसके लिए
तेरी आँखों के दीये .."
इसे सुनकर, रोमांचित होकर
वह ज़िंदगी के दरवाज़े पे लगे
खामोशी के ताले खोलती है
मुस्कुराते हुए
पड़ोसी दिल से बोलती है...
"वह गोकुल का छोरा
नटखट ग्वाला
नंदलाला...
युग बदले
पर वह
कण भर भी नहीं बदला...
तो मैं आज भी
बरसाने की
राधिका ही हूं ना!