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बरसों तक / मनोज छाबड़ा

बरसों तक
शीशे पर बरसता रहा
आख़िरकार
थक-हार कर बैठ गया पत्थर
 
पराजित मित्र को
थका देखकर
शीशा-
टूटा
और
बिखर गया