बरसों बाद
लौट रहा हूँ
अपने गाँव
जिसे छोड़कर गया था
एक अदद नौकरी की तलाश में
शहर की व्यस्त ज़िन्दगी
और बाज़ारूपन से ऊबा
मेरा तन-मन
डूबा है
पुरानी स्मृतियों में...
याद आ रहे हैं
हरे-भरे खेत
आम-अमरूद के बाग
नदी के कछार में
पक रहे
तरबूज... खरबूज
ककडी़ और फूट...
कितना मज़ेदार था
पीली सरसों
और गेहूँ की बालियों के बीच
अलमस्त गन्ने चूसना
या फिर संगी-साथियों के
कंधे का सहारा लेकर
मेड़ों पर डगमगाते चलना
पक रहे गुड़ के ताज़ा महिए को
बाँस की खपच्चियों पर
लेकर चाटना
या फिर सुबह होते ही
आटे की गोलियाँ
और वंशी लेकर
नदी के किनारे जा बैठना
और दोपहर ढले बमुश्किल
शिकार की गई
दो-चार मछलियों को
शाहाना अंदाज़ में
कंधे पर लटकाए लौटना
गाँव की काकियों... मामियों
जैसे आत्मीय रिश्तों में
घूम...घूमकर
घुघनी...
गोइठे पर भुने भुट्टे
चूल्हे पर सिकी
बाजरे, मक्के की रोटियाँ
सरसों के साग
बथुए के चोखे
और मट्ठे के साथ
भरपेट खाना
इस समय भी
घुल रहा है
जुबान में
उन ची़ज़ों का स्वाद...
उमग रही हैं मन में
बचपन की शरारतें
सेमर वाले भूत
बरगद वाली चुडै़ल
और डीह बाबा के
किस्से सुना-सुनाकर
साथियों को डराना...
बाबा की लाठी लेकर
उनकी नकल उतरना
तपती दुपहरिया में
दोस्तों के साथ
आम के बागों का
चक्कर लगाना
और एक - एक टिकोरे
के लिए
आपस में
सिर - फुटौवल करना...
चोरी से
रिस्ते की भौजाइयों को
नहाते देखना
और पकड़े जाने पर
मीठी गालियों से
नवाज़े जाना...
सोचता हूँ
अब भी
वैसी ही होंगी
पगडंडियाँ
उसी तरह होंगे
खेत-खलिहान
उतना ही होगा
आत्मीय रिश्तों में रस...
मेरे लौटने की खबर से
फैल जाएगा गाँव में
चिर-परिचित कोलाहल
दौड़ पडे़गी नाईन
पाँव पखारने के लिए
परात में पानी लेकर
भौजी घोलेंगी लोटे में
ताज़े गुड़ का शरबत
दरवाज़े पर लग जाएगी
भीड़...।