आओ, आकर तुम बरसो घन
प्यासा है हर मन का आँगन
पोखर के छल्ली सीने को
इक तुमसे ही अब आशा है
नहरों में सूखी घास पड़ी
मन-मन में क्षोभ, निराशा है
तुम राजभवन में जा बरसो
इसमें क्या मोल तुम्हारा है
छत से मिटटी-सा नेह मिला
गमलों ने याकि पुकारा है
यदि तुम्हें बरसना ही है तो
बनकर बरसो दीनों का धन
प्यासी धरती, प्यासी परती
झुलसे ये विटप पुकार रहे
प्यासे खग, भूखे कृषक तुम्हें
नभ में हैं नित्य निहार रहे
मदमस्त झड़ी देकर तुम भी
नव जीवन का वरदान बनो
कागज की नावों के वाहक
बालक मन की मुस्कान बनो
उम्मीद भरे इन आँखों के
हिस्से में मत डालो रोदन
सावन के झूले रिक्त पड़े
है विकल पपीहे का रव-स्वर
मोरों के मन भी हास रिक्त
सूखे पनघट, घट, तृषित अधर
लू भरे पवन में धूल भरी
तुम इसमें शीतलता भर दो
हे मेघदूत खुशियाँ लाकर
धरती का आँचल तर कर दो
कजरी, सावन के गीतों से
प्यारा सबको तेरा गर्जन
रचनाकाल-14 जुलाई 2017