Last modified on 23 मार्च 2017, at 09:12

बरसो बादल / अमरेन्द्र

बहुत तपी धरती यह अपनी, बरसो-बरसो बादल
दिन आवां-सा, रात आग-सी, अवधि चिता की सेज
पीत-पीताम्बर चिनगारी है जो था रखा सहेज
झनकाओ बिजली की पायल, अधरों पर हो मादल !

परती और पराँटों की ही बात नहीं है केवल
घर की दीवारों पर अब तो नागफनी लहराए
तुलसीचैरा पर चढ़ आने को बेकल दिखलाए
रेतों में उड़ते पलाश हैं, पाटल, बेला, सेमल ।

उतरो बादल पर्वत पर, वन में, नदियों पर नाचो
हो समीर की साँसों में मधुगन्ध मदिर-सा होम
धरती की काया से निकले बाँस-वनों के रोम
साल, शिलन्ध्र, लांगली, जूही, सल्लकी महके पाँचो !

बाँसों के फूटे नव कोंपल, नील धरा पर छाए ।
बरसो बादल, अब न कामिनी या चकोर ललचाए !