(सन् 1942 की क्रांति का जन-गढ़)
यह जन-गढ़ है अविजित-दुर्दम, है खेल नहीं टकराना,
इसने न कभी अत्याचारों के आगे झुकना जाना !
हिमगिरि उच्च-शिखर-सा वसुधा पर अविचल आज़ाद खड़ा,
पशुबल की ‘गोरी’ सत्ता से क़दम-क़दम पर अड़ा-लड़ा !
मानवता का जीवित प्रतीक, आज़ादी हित मतवाला,
पड़ न सकेगा इसके मुख पर साम्राज्यवाद का ताला !
आज जवानों ने खोल दिए हैं दृढ़ सीने फ़ौलादी,
इनक़लाब के चरण थके कब, जब ज्वाला ही बरसा दी !
तुम आँधी बन बढ़ते जाओ, साहस से, उन्मुक्त-निडर,
तुम पर बंदी माँ की ठहरी है रक्षा की आस अमर !
शोषित जन-जन साथ तुम्हारे अगणित कंधों का बल,
शत-शत कंठोंका विजयी स्वर गूँज रहा निर्भय अविरल !
खेतों-खलिहानों में गिरता है जो शव-रक्त तुम्हारा,
उससे फूटेगा आज़ादी का नूतन कोंपल प्यारा !
आगामी सदियाँ समझेंगी उसको निज प्राणों की थाती,
रोज़ जलेगी उस धरती पर बलिदानों की स्मृति-बाती !
1943