बलि-बेदी की ओर बढ़ रहे हैं जवान वीरान वतन के
इस विराट सेना के आगे-आगे
युग का कवि चलता है
जिसके दिल-दिमाग दोनों में
विद्रोहों का रवि जलता है
साँस-साँस झंझा के झोंके
वाणी से अंगार झर रहे
जो जन-जन में ज्वाल भर रहे
कण-कण में भूचाल भर रहे
धधक रही यौवन की ज्वाला
फ़ैल रहा विद्रोह उजाला
तांडव-नर्तन की मुद्रा में
नाच रहा युग-कवि मतवाला
पीछे-पीछे क्रुद्ध क्रान्ति के—
व्याल कराल चले आते हैं
आग और अंगार उगलते
माँ के लाल चले आते हैं
मुट्ठी भर हड्डी के ढाँचे, निर्माता संहार-सृजन के
माँ के चरणों पर चढ़ने को व्याकुल हैं ये फूल चमन के