उन आँखों की चमक
बढ़ गई है
जिनमें
अँधेरे के पार
प्रतीक्षार्थिनी थी
एक सुबह !
खिल गया है
वह मुख
जिसके प्रकाश में
चल रही है
यह अन्तहीन यात्रा !
यात्रा जो शुरु नहीं हुई !
(1965)
उन आँखों की चमक
बढ़ गई है
जिनमें
अँधेरे के पार
प्रतीक्षार्थिनी थी
एक सुबह !
खिल गया है
वह मुख
जिसके प्रकाश में
चल रही है
यह अन्तहीन यात्रा !
यात्रा जो शुरु नहीं हुई !
(1965)