Last modified on 11 अप्रैल 2018, at 16:45

बसन्त बहार / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

मगन बसन्त आ रहल सुना रहल सुगीत हे।
कि पीत पात में झरल इहाँ अजब अतीत हे।
झरल इहाँ पुरान हे खिलत नया बिहान हे।
थिरक रहल प्रमोद में सगर सुघर जहान हे।
गली-गली डगर-डगर कि बाध और बधार में।
कि झूम झूम गा रहल कि भौंरवा बहार में॥

बसन्त के बहार में उमंग में हँसे कली।
बुला रहल सनेह में कि बाबरा बनल अली।
सगर समीर में इहाँ सुगन्ध के सुराज हे।
खिलल कमल पराग ले गन्ध में ही नाज हे।
कि बौर ले सहक रहल मगन इहाँ रसाल हे।
मदन महीप राज में ललाम प्रेम जाल हे॥

बनल बसन्त दूत हे सपूत ई विकास के।
कि लाल लाल फूल हे खिलल इहाँ पलास के।
फुदक जगा रहल पिकी कुहू-कुहू-पुकार के।
कि डाल हे मगन इहाँ सुगीत गा दुलार के।
कि सोरहो सिंगार ले कनेर कुन्द कामिनी।
करे कुलेल डाल पर जगा मनोज रागिनी।

कि बाग औ बगान में गुलाब लाल लाल हे।
कि झूम झूम डाल पर दिखा रहल कमाल हे।
कि छेंक के दुआर पर दुलार में खड़ा मगन।
कि प्रेम के पराग लेल भौंरवो लगा लगन।
कि नाच नाच कुंज वन बनल अछोर प्रेमघन।
कि प्रेम के इँजोर में मना रहल बढ़ा चरन॥

ई कइसन मधुमास कि जे हे सब के रूप चितेरा।
पर करील के सजा न पइलक विधि के लगलई फेरा॥
भेल असुन्दर जग में सुन्दर पा बसन्त कारीगर।
रच देलक सोभा के नगरी ई बसन्त बाजीगर॥